सौ-सौ जनम नहीं मिल पायें
[मुजीव-वाणी]
मत छिडको तुम नमक घाव पर, मत मुझको तुम प्यार दो,
इतने घाव लगे हैं उर में, सौ - सौ जनम नहीं भर पायें.
शासक हो कर तुम जनता का शोषण करते,
भाई हो कर तुम , बहनों की मर्यादा हरते.
तुम रिपु कहते जिन्हें, आज वे बने कृष्ण सम,
लाखों द्रुपदाओं को, चीर उढ़ाते, रक्षा करते.
एक पाक का, एक राष्ट्र का, मत मुझको उपदेश दो,
इतने भाग हुये हैं घट के, सौ-सौ जनम नहीं मिल पायें.
देख तुम्हारी परम वीरता, कायरता भी शरमाई,
संगीन भोंकते बच्चों को, तुमको शर्म नहीं आई.
जिन पापों को, घृणित कार्य को, कह न सकें हम,
सरे आम सड़कों पर करते, तुमको लाज नहीं आई .
सदाचार का, धर्म शास्त्र का, मत मुझको उपदेश दो,
इतने दाग लगे दामन में, सौ-सौ जनम नहीं धुल पायें.
अबलाओं के सबल हस्त को, तुमने नहीं निहारा है,
फूल सुकोमल नारी ने, चंडी का रूप संवारा है.
जब - जब भी चूड़ी तज, शमशीर उठाई नारी ने,
दुश्मन उलटे पांव भगा, या जड़ से किया किनारा है.
अब, हमने मरना सीख लिया है, जीने का अधिकार है,
इतने त्याग किये है हमने, सौ-सौ जनम नहीं मर पायें.
आजादी का बंदी मैं, तुमने मानव संहार किया,
खून पिया तुमने मानव का, मैंने उसका दर्द पिया.
हंस बचाने की खातिर, आदर्शो में बड़ी विषमता,
गौतम ने हैं प्राण बचाये, देवदत्त ने वार किया.
आदर्श हमारे भिन्न - भिन्न हैं, एक नदी दो पाट से,
इतने दूर हो चुके तुमसे, सो-सो जनम नहीं मिल पायें.
....आनंद विश्वास
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