दीप लौ उबार लो, शीत की वयार से,
जिन्दगी सँवार लो, प्रीति की फुहार से।
साँस भी घुटी-घुटी,
आस भी छुटी-छुटी।
प्यास प्रीति की लिये,
रात भी लुटी-लुटी।
रात को सँवार लो, चन्द्र के दुलार से,
जिन्दगी सँवार लो, प्रीति की फुहार से।
दीप के नयन सजल,
सूर्य हो गया अचल।
तम सघन को देख-देख,
रात गा रही गज़ल।
रात को बुहार दो, भोर के उजार से,
जिन्दगी सँवार लो, प्रीति की फुहार से।
गुलाब अंग तंग हैं,
कंटकों के संग हैं।
क्या यही स्वतंत्रता,
कैद क्यों विहंग हैं।
बंधनों को काट दो, नीति की दुधार से,
जिन्दगी सँवार लो, प्रीति की फुहार से।
राम-राज रो उठा,
प्रीति-साज सो उठा।
स्वार्थ-द्वेष-राग का,
समाज आज हो उठा।
समाज को उबार लो, द्वेष के विकार से,
जिन्दगी सँवार लो, प्रीति की फुहार से।
-आनन्द विश्वास
शुभ दीपावली,
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