Saturday 25 April 2020

चिड़िया फुर्र...

अभी दो चार दिनों से देवम के घर के बरामदे में चिड़ियों की आवाजाही कुछ ज्यादा ही हो गई थी। चिड़ियाँ तिनके लेकर आती, उन्हें  ऊपर रखतीं और फिर चली जातीं दुबारा, तिनके लेने के लिये।
लगातार ऐसा ही होता, कुछ तिनके नीचे गिर जाते तो फर्श गंदा हो जाता। पर इससे चिड़ियों को क्या? उनका तो निर्माण का कार्य चल रहा है, नीड़ निर्माण का कार्य। उन्हें गन्दगी से क्या लेना-देना।
नये मेहमान जो आने वाले हैं। और नये मेहमान को रहने के लिये घर भी तो चाहिये न? आखिर एक छत तो उनको भी चाहिये, रहने के लिये। पक्षी हैं तो क्या हुआ? उड़ना बात अलग है, चाहे कितना भी ऊँचा उड़ लिया जाय, पर रहने के लिये, आधार तो सबको ही चाहिये।
और फिर इनकी दुनियाँ में तो सब कुछ सेल्फ-सर्विस ही होता है। सब कुछ खुद ही तो करना होता है इन्हें। कोई नौकर नहीं, कोई मालिक नहीं। सब अपने मन के राजा और सब अपने मन के गुलाम।
देवम जब भी बरामदे में आता तो उसे कचरा पड़ा दिखाई देता। ऐसा कई बार हुआ। पर जब उसने ऊपर की ओर देखा तो उसे ख्याल आ गया कि ये तिनके तो चिड़ियाँ बार-बार ला कर ऊपर रख रहीं हैं और वे ही तिनके नीचे गिर जाते हैं। और घर गंदा हो जाता है।
गन्दगी तो देवम को बिल्कुल भी रास नहीं आती। कभी काम वाली से तो कभी खुद, साफ-सफाई करते-करवाते देवम हैरान परेशान हो गया।
उसने मम्मी से शिकायत के लहज़े में कहा-मम्मी, ये चिड़ियाँ तो घर को कितना गंदा करतीं हैं, देखो ना?” 
मम्मी को समझने में देर न लगी। उन्होंने देवम को समझाते हुए कहा-बेटा, ये अपना घर बना रहीं हैं और जब घर बनता है तो थोड़ी बहुत गंदगी तो हो ही जाती है। ला मैं साफ कर देती हूँ। कुछ दिनों के बाद देखना छोटे-छोटे बच्चे जब चीं-चीं करके उड़ेंगे तो बड़े प्यारे लगेंगे।
ऐसा माँ?” देवम ने आश्चर्यचकित हो कर पूछा।
 “हाँ बेटा, छोटे-छोटे मेहमान आयेंगे अपने घर में। मम्मी ने बड़े प्यार से देवम को समझाया।
देवम के मन में आतुरता जागी, छोटी-छोटी चिड़ियाँ के पास कहाँ से, कैसे आ जाते हैं छोटे-छोटे प्यारे बच्चे? अब तो उसके मन में बस प्रतीक्षा थी कि कब वह प्यारे-प्यारे बच्चों को देख सकेगा?
अब तो उसे उनके प्रति सहानुभूति हो गई थी । नीचे पड़े हुए तिनकों को पहले तो वह कचरा मान कर बाहर फैंक दिया करता था। पर अब तो सब के सब तिनके उठा कर, जब चिड़िया बाहर गई होती, तो चुपके से टेबल के ऊपर चढ़कर घोंसले के पास रख देता। और इस तरह रखता कि चिड़िया को पता न लगे। गुप्तदान की तरह गुप्त सहयोग।
सहयोग और सहानुभूति की प्रबल इच्छा होती है बालकों में। बस यह सोच कर कि जितनी जल्दी घर बन जायेगा, उतनी ही जल्दी बच्चे भी आ जायेंगे। और कभी-कभी तो वह बाहर से गार्डन में पड़े तिनकों को खुद ही उठा कर ले आता और टेबल पर चढ़ कर घौंसले के पास रख देता।
और जब उन तिनकों को चिड़ियाँ नहीं लेतीं, तो कभी तो बोल कर, तो कभी इशारे से वह कहता-ये तिनके भी ले लो न। ये भी तुम्हारे लिये ही हैं। पर दोनों एक दूसरे की भाषा समझें, तब न।
देवम रोज सुबह घोंसले की ओर देखता, और फिर निराश मन से मम्मी से पूछता-मम्मी, कितने दिन और लगेंगे बच्चों के आने में?”
एक ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर किसी के पास न था और वैसे भी बच्चों के प्रश्नों का उत्तर देना इतना आसान भी तो नहीं होता। हर कोई बीरबल तो होता नहीं है।
देवम को समझाते हुए मम्मी ने कहा-बेटा, ये सब तो भगवान की मर्जी है, जब वे चाहेंगे तब तुरन्त भेज देंगे।
 “पर, कब होगी भगवान की मर्जी। इतने दिन तो हो गये हैं।देवम ने उलाहना देते हुए कहा। जैसे कि वो भगवान की शिकायत कर रहा हो। बच्चों के लिये तो माँ, किसी भगवान से कम नहीं होतीं।
शायद देवम की बात भगवान को सुनने में देर न लगी और दूसरे दिन सुबह-सुबह ही घोंसले से चीं-चीं की आवाज सुनाई दी। घोंसले के अन्दर वातावरण गर्मा गया था। चहल-पहल बढ़ गई थी। शायद देवम की प्रार्थना भगवान ने सुन ली थी। उसकी इच्छा पूरी हो गई थी और चिड़िया ने बच्चों को जन्म दे दिया था।
देवम को जब पता चला तो खुशी के मारे फूला नहीं समाया। दौड़ा-दौड़ा वह मम्मी के पास पहुँचा और खुशी का समाचार सुनाया।
वह बोला-मम्मी, घोंसले से चीं-चीं की आवाज आ रही है, सुनो न।
मम्मी ने देवम को समझाया-एक दो दिन बाद जब बच्चे बाहर निकलेंगे तब दिखाई देंगे। तब तक तो इन्तजार करना ही होगा।” 
मम्मी, मैं अभी ऊपर चढ़ कर देख लूँ तो?” देवम ने उत्सुकता वश पूछा।
न बेटा, चिड़िया नाराज़ हो जायेगी और घर छोड़ कर कहीं दूसरी जगह चली जायेगी।मम्मी ने देवम को समझाते हुए कहा।
तो फिर क्या करूँ? मम्मी।देवम का प्रश्न था।
बस एक दो दिन में बच्चे खुद ही बाहर आ जायेंगे।मम्मी ने बाल-मन को समझाते हुए कहा।
ठीक है, मम्मी। जब बाहर आयेंगे तभी देख लूँगा। देवम ने अपने मन को समझाते हुये कहा।
एक-एक पल का इन्तज़ार जिसके लिए बेहद मुश्किल हो, दो दिन कैसे बिताये होंगे, ये तो देवम ही जाने। पर आज चिड़िया के बच्चों ने घोंसले से बाहर अपना मुँह निकाला और वो भी तब जब कि चिड़िया दाना लेने बाहर गई हुई थी।
 शायद अधिक देर हो जाने के कारण, बेटों को माँ की चिन्ता हुई होगी या फिर भूख अधिक लगने के कारण उनकी व्याकुलता बढ़ गई हो?
खैर, कारण जो भी हो, पर देवम की शिशु-दर्शन की तमन्ना आज पूर्ण हो गई। छोटे-छोटे बच्चों को आज उसने जी भर कर देखा। और इसी अन्तराल में चिड़िया भी वहाँ आ पहुँची।
बच्चों का चीं-चीं करके मुँह खोलना और चिड़िया का मुँह में दाना डालना। दिव्य-दृश्य देवम ने निहारा। गद्-गद् हो गया उसका आतुर मन।
छोटे-छोटे बच्चे कभी घोंसले से बाहर की ओर मुँह निकाल कर अपनी माँ का इन्तजार करते और कभी जब माँ दिखाई दे जाती तो चीं-चीं कर के उसे बुलाते। देवम यह सब कुछ देख कर बड़ा खुश होता।
कभी तो थाली में ज्वार का दाना रख कर दूर हट जाता और दूर खड़े हो कर चिड़िया का इन्तजार करता। उसे तो उस क्षण का इन्तजार रहता जब चिड़िया दाना ले कर अपने छोटे-छोटे बच्चों के मुँह में दाना डाले।
इस क्षण की अनुभूति ही देवम को बड़ी अच्छी लगती। और इसी क्षण की प्रतीक्षा में वह घण्टों घोंसले से दूर इन्तजार करता।
छोटे बच्चों का घोंसले के बाहर निकलना, पंखों को फड़फड़ाना और उड़ने का प्रयास करना, अब तो आम बात हो गई थी। पर देवम की आत्मीयता में कोई भी कमी नही आई थी। वह उनका पूरा ख्याल रखता।
कभी-कभी तो वह छोटी थाली में दाना डाल कर, टेबल पर चढ़ कर थाली को ही घोंसले के पास रख देता। और दूर खड़ा हो गतिविधियों का निरीक्षण करता।
एक दिन देवम ने देखा कि एक बिल्ली टेबल पर रखे सामान के ऊपर चढ़ कर घोंसले तक पहुँचने का प्रयास कर रही है। उसे समझते देर न लगी कि बिल्ली तो बच्चों को नुकसान पहुँचा सकती है। उसने बिल्ली को तुरन्त भगाया और मम्मी को बताया।
मम्मी ने पायल की मदद से टेबल पर रखे सामान को वहाँ से हटा कर टेबल को भी उस जगह से हटा कर दूसरी जगह रख दिया। और साथ ही ऐसी व्यवस्था कर दी कि घोंसले के पास तक बिल्ली न पहुँच सके।
अब उसे ख्याल आ गया कि बिल्ली कभी भी चिड़िया के बच्चों को नुकसान पहुँचा सकती है और उनकी रक्षा करना उसका पहला कर्तव्य है। उसने निश्चय किया कि वह अपना अधिक से अधिक समय बरामदे में ही बिताएगा।
अपने पढ़ने की टेबल-कुर्सी भी उसने बरामदे में ही रख ली। और तो और डौगी को भी पिलर से बाँध दिया ताकि बिल्ली घोंसले के आसपास भी न फटक सके। अब तो उसकी पढ़ाई भी बरामदे में ही होती।
शायद राजा दिलीप ने इतनी सेवा नन्दिनी की नहीं की होगी, जितनी सेवा देवम ने चिड़िया और उनके बच्चों की, की। राजा दिलीप का तो स्वार्थ था। पर देवम का क्या स्वार्थ, उसे तो बस सेवा करने में अच्छा लगता है। बच्चों का प्रेम तो निश्छल होता हैं, उनका प्रेम तो निःस्वार्थ भावना से भरा होता है। छल और कपट से परे, भगवान का वास होता है उनके पावन मन-मन्दिर में।
और इस तरह एक सप्ताह ही बीता होगा कि एक दिन देवम ने देखा कि घोंसले में न तो चिड़िया थी और ना ही बच्चे। चिड़िया-फुर्र और घोंसला खाली।
एक दिन और इन्तजार किया, शायद रास्ता भूल गये हों। पर वे नहीं आये तो नहीं ही आये। चिड़िया और बच्चे उड़ कर जा चुके थे।
बाल-मन उदास हो गया। प्रेम की डोर ही कुछ ऐसी ही होती है। जब टूटती है तो दुख तो होता ही है।
उसने मम्मी से बड़े ही उदास मन से कहा,मम्मी, चिड़िया तो बच्चों के साथ कहीं उड़ गई। अब घोंसला तो खाली पड़ा है।
अच्छा! चिड़िया फुर्र हो गई? चलो, अच्छा हुआ और दूसरी आ जायेगी। मम्मी ने जानबूझ कर वातावरण को हल्का करते हुए कहा।
 “नहीं मम्मी, मुझे चिड़िया के बच्चे अच्छे लगते थे। देवम ने दुखी मन से कहा।
पर उनको जहाँ अच्छा लगेगा, वहीं तो वे रहेंगे।मम्मी ने देवम को समझाया।
मैं तो उनका कितना ध्यान रखता था फिर भी चले गये। देवम ने शिकायत भरे लहज़े में कहा और कहते-कहते आँसू छलक पड़े।
कैसे समझाये मम्मी, जिन्दगी के इस गूढ रहस्य को।  बच्चे प्यारे होते हैं, वे निश्छल और निःस्वार्थ प्रेम करते हैं। और प्रेम ही तो मोह का मूल कारण होता है। बन्धन में बाँध लेता है भोले मन को।
जो आया है उसे एक न एक दिन तो जाना ही होता है। बालक को समझाना कितना मुश्किल होता है, ये तो देवम की मम्मी ही जाने। माँ से ज्यादा अच्छा और कौन समझा सकता है? और समझ सकता है अपने बालक को?
पर यह सत्य है एक न एक दिन तो हम सबको ही फुर्र हो कर कहीं उड़ जाना है और घोंसले को तो यहीं का यहीं रह जाना है। फिर मोह कैसा?  पर फिर भी, मोह तो होता ही है। आँखें तो भर ही आती हैं।
मम्मी ने देवम को समझाते हुए कहा-बेटा, जब तेरे पापा छोटे थे तो पापा की मम्मी, पापा को दूध पिलाती थी, खाना खिलाती थी और गाँव में रहते थे।
ऐं मम्मी!” देवम को आश्चर्य भी हुआ और हँसी भी आई।
हाँ और सुन, फिर पापा बड़े हो गये, उनकी नौकरी यहाँ शहर में लगी, तो फुर्र होकर गाँव से शहर आ गये।ऐसा कहते हुए मम्मी ने एलबम में से अपनी बचपन की एक फोटो दिखाई।
ये तो मम्मी फ्रॉक पहने हुए कोई छोटी सी लड़की बैठी है।देवम ने फोटो देख कर कहा।
 “पहचान, ठीक से पहचान, ये तो मैं हूँ।मम्मी ने देवम की जिज्ञासा बढ़ाई।
पहले ऐसी थीं मम्मी आप?” देख कर देवम को हँसी आ गई।
हाँ, पहले ऐसी थी मैं, फिर बड़ी हो गई, शादी हुई और फिर फुर्र होकर मैं तेरे पापा के पास आ गई।मम्मी ने देवम को समझाया।
पहले तो देवम हँसा फिर बोला-फिर तो मम्मी, मैं भी बड़ा हो कर पापा जैसा हो जाऊँगा?”
हाँ बेटा, अभी तू पढ़ेगा, फिर जहाँ तेरी नौकरी लगेगी वहीं तू भी फुर्र होकर चला जायेगा। तेरी भी सुन्दर- सी बहू फुर्र हो कर तेरे पास आ जायेगी।मम्मी ने देवम को गुदगुदाया।
अच्छा मम्मी, मैं अभी फुर्र होकर दूसरे कमरे में होकर आता हूँ और आप मेरे लिये किचिन में से फुर्र होकर ठंडा-ठंडा पानी ले आओ। मुझे बड़ी जोर से प्यास लगी है।देवम ने कहा।
और जब एक प्यास बुझ जाती है तो दूसरी प्यास लगा ही करती है, ऐसा प्रकृति का नियम ही है। शायद देवम की समझ में भी कुछ आ गया होगा।
वह समझ गया था कि भगवान ने पक्षियों को उड़ने के लिये पंख दिये हैं तो वे उड़ेंगे ही। स्वच्छंद असीम आकाश में। पक्षी तो आकाश की शोभा हैं न कि बन्द पिंजरों की।
उधर देवम के पापा ने यह सोच कर कि देवम का मन लगा रहेगा और चिड़िया के बच्चों से मन हट जायेगा, बाजार से दो तोते पिंजरों के साथ मँगवा दिये। और जहाँ घोंसला था उसी के नीचे दोनों पिंजरे टँगवा दिये। खाना और पानी की भी पूरी व्यवस्था भी करवा दी।
देवम ने तोतों को देखा तो आश्चर्य हुआ। पर उसे अच्छा नहीं लगा।
उसने पापा से कहा-पापा, इन तोतों को उड़ा दें तो कितना अच्छा रहेगा? आकाश में उड़ते हुये ये कितने सुन्दर लगेंगे?”
हाँ, पर तुम जैसा उचित समझो?” पापा ने कहा। चाहते तो पापा भी यही थे। पर कभी-कभी सन्तान की खुशी के लिये माता-पिता को वह काम भी करना पड़ता है जिसे वे नहीं चाहते हैं। पर उनका प्रयास बच्चों को सही दिशा दिखाने का अवश्य ही रहता है।
देवम ने दोनों तोतों को खट्टी अमियाँ खिलाईं, पानी पिलाया और फिर पिंजरे के दरवाजे को खोल कर हँसते हुये कहा,तोते फुर्र..... तोते फुर्र...... तोते फुर्र.....।
और देखते ही देखते दोनों तोते पंख फड़फड़ाते हुए असीम आकाश में ओझल हो गए और शायद देवम का मन भी असीम आकाश सा विशाल हो गया था।
 और मम्मी खड़ी-खड़ी देवम की प्रसन्नता को निहार रहीं थीं।
फिर मम्मी को देख कर, हँसते हुये देवम ने मम्मी से कहा,मम्मी, चिड़िया फुर्र...  तोते फुर्र...  फुर्र... फुर्र...
देवम ने दोनों पिंजरों को बड़ी बेरहमी से तोड़ डाला ताकि कोई दूसरा तोता इन पिंजरों में, कोई बन्द न कर सके।
और घोंसले को वहीं रखा रहने दिया ताकि कोई दूसरी चिड़िया इसमें आ कर रह सके।
पर भोले देवम को क्या मालूम कि इनके समाज में, ये लोग तो अपना घर खुद ही बनाते हैं। ये लोग किसी दूसरे के घर में नहीं रहते हैं। और तो और इनके यहाँ तो सब कुछ सैल्फ-सर्विस ही होता है।
देवम क्या जाने कि जब ये प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं तो ये नश्वर शरीर किसी काम का नहीं रहता और ना ही इस नश्वर घोंसले में कोई प्राण, पुनः प्रवेश करता है। प्राण को परमात्मा से मिलने के लिए घोंसले से तो बाहर निकलना ही पड़ता है। ये चिड़िया फुर्र होकर ही तो अनन्त आकाश में विलीन हो जाती है। एक जगह विरह होता है तो दूसरी जगह मिलन भी तो होता है।
इस जरा सी बात को देवम क्या, हम भी नहीं समझ पाते हैं और चिड़िया के फुर्र होने पर वरबस आँखों से सागर छलक जाते हैं। गंगा-जमना बह जातीं हैं। मन उदास हो जाता है।
यही तो संसार का नियम है।
...आनन्द विश्वास

Tuesday 7 April 2020

एक आने के दो समोंसे

बात उन दिनों की है जब एक आने के दो समोंसे आते थे और एक रुपये का सोलह सेर गुड़। अठन्नी-चवन्नी का जमाना था तब। प्राइमरी स्कूल के बच्चे पेन-पेन्सिल से कागज पर नही, बल्कि नैज़े या सरकण्डे की बनी कलम से खड़िया की सफेद स्याही से, लकड़ी के तख्ते की बनी हुई पट्टी पर लिखा करते थे।
वो भी क्या दिन थे जब पट्टी को घुट्टे से घिस-घिसकर चिकना किया जाता था। उस लिखने में मजा ही कुछ और था। पट्टी की एक तरफ एक से सौ तक की गिनती और दूसरी तरफ दो से दस तक के पहाड़े लिखकर मास्टर जी को दिखाकर, उसे पानी से धो दिया जाता था। और फिर पट्टी की मुठिया को पकड़कर हवा में जोर-जोर से हिला-हिलाकर सुखाया जाता था। और साथ ही साथ गाने का आनन्द भी तो उतना ही अच्छा लगता था जब क्लास के सभी बच्चे गाना गाते थे और गाना गा-गाकर पट्टी सुखाते थे। सब को याद था ये गाना….
सुख-सुख   पट्टी, चन्दन  घुट्टी।
राजा   आये,  महल   बनाया।
महल के  ऊपर  झप्पड़ छाया।
झप्पड़ गया टूट, पट्टी गई सूख।
हाँलाकि इस गाने का अर्थ तो आज तक मुझे पता नहीं चल पाया। पर हाँ, इतना जरूर था कि पट्टी सूख तो जरूर जाती थी। पता नहीं, हो सकता है, इसके पीछे कोई तर्क रहा हो। पर कोई बात तो जरूर ही रही होगी अपने बुगुर्जों के कार्य करने की शैली या बुध्दिमत्ता पर जरा सा भी संशय करना या प्रश्न उठाना, उचित सा तो नहीं लगता। शायद बच्चों को गाना सिखाने उद्देश्य रहा हो। आज जैसे गाने तब शायद नहीं थे। जौनी-जौनी यस पापा या बाबा ब्लैक शीप या टिंक्वल-टिंक्वल लिटल स्टार जैसे गानों का प्रचलन ही कहाँ था तब। अंग्रेज और अंग्रेज़ियत का प्रभाव, इतना तब नहीं था जितना अब और आज है। तब हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियत की बू गर्व मानी जाती थी, जितनी कि आज अंग्रेज़ियत की बू।
और जब पट्टी सूख जाती, तो उसे घुट्टे से घिस-घिस कर चिकना करने और फिर कलम से लिखने में जो आनन्द आता था वह आनन्द आज के लैपटॉप या कम्प्यूटर की की-बोर्ड पर अँगुलियाँ घुमाने में कहाँ? नैज़े की कलम से,खड़िया की सफेद स्याही को बुदक्के में भर कर, बार-बार कलम को डुबा कर एक-एक अक्षर को मोती-सा टाँकना, कितना मन-भावन होता था। और वह भी टाट के बोरे पर बैठ कर। कोई फर्नीचर नहीं, कोई सीटिंग एरेंजमेंट नहीं, बस जहाँ बोरा बिछा दिया, बन गया वहीं क्लास-रूम।
और रिसेस के बाद तो पूरे स्कूल की सभी कक्षाऐं दो भागों में बँट जाती थीं और फिर शुरू हो जाता था, दो से पच्चीस तक के पहाड़ों का बोलना। एक टीम बोलती, दो एकम् दो तो दूसरी बोलती, दो दूना चार...और इसके बाद फिर ढ़इय्या, अध्धा, पौना और सबैय्या। सबको सब कुछ तोते की तरह रटे पड़े थे। रोज़ाना जो बोलने पड़ते थे। दिमाग ही कैलक्यूलेटर और कम्प्यूटर बन जाता था।
गलती करने पर पाँच सन्टी की सजा तो सामान्य सजा ही मानी जाती थी, शीशम की सन्टी का ही प्रचलन था तब और हर सन्टी पर चींख सी निकल जाती थी बालकों की। पर मज़ाल है कि कोई वाली आ कर कह दे कि मास्टर जी आपने मेरे बालक को क्यों मारा? हाँ, ऐसा तो जरूर कहने आते थे कि मास्टर जी अगर ये कोई गलती करे तो इसे मार-मार कर सुधारिये। इसे अपना बच्चा ही समझिये। आत्मीयता भी थी तब और कर्तव्य का बोध भी।
और इतना ही नहीं, इससे बड़ी सजा होती थी मुर्गा बनाने की। यानी अगर गलती करोगे तो फिर मनुष्य योनी से मुर्गा-योनी में प्रवेश। और कुछ समय के लिये मुर्गा बना दिया जाता था। और कभी-कभी तो निर्जीव कुर्सी भी बना दिया जाता था और उस बाल-कुर्सी पर किसी बालक को बैठा भी दिया जाता था या फिर सिर पर ईंट रख दी जाती थी और ईंट गिरने पर फिर वही पाँच सन्टी की सजा। जी हाँ, वही शीशम की सन्टी। चरित्र-निर्माण और न्याय के साथ कोई समझौता नही किया जाता था। निष्पक्ष न्याय होता था मास्टर जी के दरबार में।
मैं पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था। यूँ तो मेरी गिनती स्कूल के अच्छे बच्चों में होती थी और सभी शिक्षकों का स्नेह मेरे ऊपर रहता था फिर भी मुझे सबसे अधिक डर लगता था तो वो थे मेरे स्कूल के हैड-मास्टर साहब और हैड मास्टर साहब, अगर सबसे अधिक किसी को प्यार करते थे, तो वह मैं था।
कारण मुझे पता नहीं, पर मैं तो यह ही मानता था कि मैं पढ़ने में होशियार हूँ और हैड मास्टर जी का सब काम दौड़-दौड़ कर कर देता हूँ। मसलन चॉक ले कर आना या बोर्ड को साफ करके रखना या फिर जब कभी उनका आदेश होता तो बाहर लगे हैन्ड-पम्प से ठन्डे-ठन्डे पानी का गिलास भर कर ले आना। पानी तो वे अक्सर मेरे हाथ का ही पिया करते थे। और मैं भी पानी लाने में सफाई का बहुत ध्यान रखता था शायद इसलिये या और कुछ। पर कारण का मुझे पता नहीं।
उन्हीं दिनों म्युनिस्पलटी के चुनाव होने वाले थे और प्राइमरी स्कूलस् म्युनिस्पल बोर्ड के अन्तर्गत आते थे। चुनाव सम्बन्धी कार्य प्राइमरी स्कूलस् के टीचर्स और हैड-मास्टर्स को सोंपे गये थे। और सभी शिक्षकों को निर्धारित वार्ड में जा कर चुनाब की वोटिंग पर्चियों को बाँटना तथा अन्य कार्य सोंपे गये थे। हैड मास्टर साहब को जो वार्ड सोंपा गया था उसी वार्ड में मेरा घर था। और यह सब काम स्कूल छूटने के बाद ही करना होता था।
शाम का समय था घर के बाहर चौक में मैं अपने साथियों के साथ खेल रहा था। और इसी समय हैड मास्टर साहब का आना हुआ, हैड मास्टर साहब को देखते ही खेल तो तुरन्त बन्द हो गया और सभी साथी, जिज्ञासा-वश हैड मास्टर साहब के पास पहुँच गये। पर मैं दौड़ कर घर पहुँचा और माता जी को बताया कि मेरे स्कूल के हैड मास्टर साहब बाहर आये हुये हैं अतः वे घर से बाहर न निकलें और घर के अन्दर ही रहें।
उन दिनों पर्दा-प्रथा का प्रचलन था। और मेरे संस्कारों के हिसाब से मेरी माता जी को हैड मास्टर साहब के सामने जाना सर्वथा अनुचित ही था। अतः मैं अपनी माता जी के पैरों से लिपट कर धक्का देते-देते उन्हें दरवाजे के अन्दर ले जाने का प्रयास करने लगा। यह सोचकर कि अगर मेरे हैड मास्टर साहब ने मेरी माता जी को देख लिया तो लोग क्या कहेंगे।
और उधर जितनी तेजी से मैं माता जी के पैरों से लिपट कर उन्हें घर के अन्दर की ओर धक्का दे रहा था उससे दुगनी तेज गति से हैड मास्टर साहब मेरी माता जी की ओर बढ़े आ रहे थे। इतनी स्फूर्ति मैंने हैड मास्टर साहब में कभी भी नहीं देखी थी। इस दौड़ में, मैं तो हार ही गया और हैड मास्टर साहब अपने लक्ष्य पर पहले पहुँचने में सफल हो गये। और हैड मास्टर साहब ने झुक कर माता जी के पैर छू ही लिये। गले से लगा लिया था हैड मास्टर साहब को, माता जी ने। आशीर्वाद की बर्षा हो रही थी।
मैं कभी हैड मास्टर साहब को, तो कभी माता जी को, और कभी अपने आप को देख रहा था। क्या माज़रा है कुछ भी तो समझ में नहीं आ पा रहा था। मेरे स्कूल के हैड मास्टर साहब, जिनकी छाया मात्र से ही, मैं थर-थर काँपने लगता था, वे हैड मास्टर साहब, मेरी माता जी के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं।
समझ नहीं आ रहा था कि मेरे हैड मास्टर साहब धन्य हैं या मेरी माता जी धन्य हैं या फिर मैं।
पर धन्य तो हमारी भारतीय संस्कृति है जिसने हमें ऐसे संस्कार दिये। हम उन्हें भूल ही जायें तो इसमें संस्कृति का क्या दोष।
"कैसे हो बेटा, सब ठीक-ठाक है न। इधर काफी समय से मिले नहीं। कोई परेशानी तो नहीं है।" माता जी ने बड़े ही स्नेहिल भाव से हैड मास्टर साहब से पूछा।
"बस, माता जी आपका आशीर्वाद है। गाँव गया था, बेटी की शादी कर दी है, लड़का गाँव में ही लेखपाल है। बाकी सब ठीक है।" हैड मास्टर साहब ने माता जी से कहा।
"चलो अच्छा हुआ बेटा, एक जिम्मेदारी तो पूरी हुई। कभी-कभार तो घूम जाया कर, चिन्ता बनी रहती है।" माता जी ने प्यार भरे लहज़े में कहा।
माता जी से मिलने के बाद हैड मास्टर साहब, अपने चुनाव काम में व्यस्त हो गये। मुहल्ले में चुनाव की पर्चियाँ बाँट कर चले गये। पर आज तक वे मेरे मन से नहीं जा सके और विनम्रता का पाठ सिखा गये। हैड मास्टर साहब ने मेरी माता जी के पैर क्या छुए, मेरे मन को ही छू गये।
मैंने माता जी से पूछा तो उन्होंने बताया-"बेटा, तेरे हैड मास्टर साहब को, तेरे पिता जी ने पढ़ाया था इसलिये वे मेरे पैर छूते हैं। मैं उनकी गुरु-माँ हूँ न।"
और तब मैं समझ पाया था गुरू और माँ की महिमा को। सच में, माँ तो आखिर माँ ही होती है।
दूसरे दिन स्कूल पहुँच कर सबसे पहले मैंने गुरू जी के पैर छुए थे, सच में मैंने पैर ही नहीं, उनका हृदय छू लिया था। भरी क्लास में गोदी में उठाकर, गले से लगा लिया था हैड मास्टर साहब ने। बज्र सा हिमालय पानी-पानी होते देखा था उस दिन मैंने और मेरी आँखों से गंगा ही तो वह निकली थी और तब जाना था मैंने कि आशीर्वाद की गंगा तो चरणों से ही निकलती है और धारण की जाती है ललाट पर।
***