Monday, 17 April 2023

“मोबाइल! तुम मेरी शान”

मोबाइल !  तुम  मेरी  शान, 

हर मुश्किल करते आसान। 

अगर समस्या कोई आती,

गूगल-आंटी राह दिखाती।

दादा जी  से  बात  कराते,

और कहानी  गीत सुनाते।

ऑन-लाइन कक्षा करवाते,

बच्चों को घर पर पढ़वाते।

माइंड-गेम बच्चों को भाते,

खेल-खेल में  ज्ञान  बढ़ाते।

मन्दिर मस्जिद चर्च घुमाते।

दिव्य-धाम  दर्शन करवाते।

यहाँ  वहाँ  कैसा मौसम है,

खिली धूप या सर्दी कम है।

बड़े शहर सड़कों के चक्कर,

सही  राह  बतलाते  चुनकर।

मंडी  हो  या  कहीं  मॉल  में,

कभी कहीं हों किसी हाल में।

मनचाही शॉपिंग कर पाते,

गूगल - पे  से  पे  करवाते।

सब  ऐपों  के तुम्हीं  सहारे,

गूगल   गाए  गान  तुम्हारे।

ब्लागर  हो  या  यूट्यूबर हो,

तुम उनके सिर-माथे पर हो।

बिना तुम्हारे  मन  घबराता,

नींद न आती,चैन न आता।

अगर  साथ में तुम हो मेरे,

लगे  हाथ  में  दुनियाँ मेरे।

भीख माँगने  वाले जो  हैं,

भीम-एप ही  रखते वो हैं।

सच में तुम हो सबकी जान,

मोबाइल ! तुम बड़े महान।

                            ***

-आनन्द विश्वास


Sunday, 9 April 2023

“मेरा घोड़ा अफलातून”

मेरा      घोड़ा    अफलातून,

दौड़ का इसको चढ़ा जुनून।

बात हवा से करता जाता,

सबसे आगे वो हो जाता।

पापा को पोलो खिलवाता,

और मुझे  भी  सैर कराता।

मस्त कलर है इसका काला,

दादा जी  ने  इसको  पाला।

मांस मीट से  नफरत  इसको,

चना घास की फितरत इसको।

ज्वार, बाजरी, भूसा खाता,

चोकर,घी,मग,दूध सुहाता।

अश्व-शक्ति है जानी मानी,

चना दूध की यही कहानी।

मैं भी चना-मसाला खाता,

और अश्व सी शक्ति पाता।

एक सजग प्राणी है घोड़ा,

खड़े-खड़े सो लेता घोड़ा।

बाजि,अश्व,हय,घोटक,घोड़ा,

शब्द-ज्ञान भी कर लें थोड़ा।

                 -आनन्द विश्वास 


 


 

Tuesday, 2 November 2021

“पर-कटी पाखी” एक विश्लेषण

मित्रो,
International Journal of Social Science & Management Studies (IJSSMS) ISSN: Nov 2017 (पेज न, 52-55) जबलपुर (म.प्र.) से प्रकाशित एक लेख "नैतिक मूल्यों के विकास में बाल-साहित्य का योगदान" विषय पर प्रकाश डालते हुए डॉ. मंजू शर्मा (ऐसो. प्रो. भारती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली) ने मेरे बाल-उपन्यास "पर-कटी पाखी" के कथानक, पात्रों और घटनाओं का विश्लेषण बड़े ही सुन्दर ढंग से किया है, पठनीय है। लेख आपके समक्ष प्रस्तुत है। डॉ. मंजू शर्मा को अनेकानेक साधुवाद एवं धन्यवाद।
-आनन्द विश्वास



Sunday, 19 September 2021

“एक आने के दो समोसे”

इस बाल कहानी को पढ़िए भी और सुनिए भी..
(इस कहानी को दिल्ली एन.सी.आर. में कक्षा-7 की हिन्दी की 
पाठ्य-पुस्तक "प्रणयन" में समाविष्ट किया गया है।)
बात उन दिनों की है जब एक आने के दो समोसे आते थे और एक रुपये का सोलह सेर गुड़। अठन्नी-चवन्नी का जमाना था तब। प्राइमरी स्कूल के बच्चे पेन-पेन्सिल से कागज पर नही, बल्कि नैज़े या सरकण्डे की बनी कलम से खड़िया की सफेद स्याही से, लकड़ी के तख्ते की बनी हुई पट्टी पर लिखा करते थे।
वो भी क्या दिन थे जब पट्टी को घुट्टे से घिस-घिसकर चिकना किया जाता था। उस लिखने में मजा ही कुछ और था। पट्टी की एक तरफ एक से सौ तक की गिनती और दूसरी तरफ दो से दस तक के पहाड़े लिखकर मास्टर जी को दिखाकर, उसे पानी से धो दिया जाता था। और फिर पट्टी की मुठिया को पकड़कर हवा में जोर-जोर से हिला-हिलाकर सुखाया जाता था। और साथ ही साथ गाने का आनन्द भी तो उतना ही अच्छा लगता था जब क्लास के सभी बच्चे गाना गाते थे और गाना गा-गाकर पट्टी सुखाते थे। सब को याद था ये गाना..
सुख-सुख  पट्टी, चन्दन  घुट्टी,
राजा  आयेमहल  बनाया।
महल के ऊपर  छप्पड़ छाया,
छप्पड़ गया टूट,पट्टी गई सूख।
हाँलाकि इस गाने का अर्थ तो आज तक मुझे पता नहीं चल पाया। पर हाँ, इतना जरूर था कि पट्टी सूख तो जरूर जाती थी। पता नहीं, हो सकता है, इसके पीछे कोई तर्क रहा हो। पर कोई बात तो जरूर ही रही होगी अपने बुगुर्जों के कार्य करने की शैली या उनकी बुध्दिमत्ता पर जरा भी संशय करना या प्रश्न उठाना, उचित सा नहीं लगता। शायद बच्चों को गीत-संगीत को सिखाने उद्देश्य रहा हो।
आज जैसे गाने तब शायद नहीं थे। जौनी-जौनी यस पापा या बाबा ब्लैक शीप या टिंक्वल-टिंक्वल लिटल स्टार जैसे गानों का प्रचलन ही कहाँ था तब। अंग्रेज और अंग्रेज़ियत का प्रभाव, इतना तब नहीं था जितना अब और आज है। तब हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियत की बू गर्व मानी जाती थी, जितनी कि आज अंग्रेज़ियत की बू।
और जब पट्टी सूख जाती, तो उसे घुट्टे से घिस-घिस कर चिकना करने और फिर कलम से लिखने में जो आनन्द आता था वह आनन्द आज के लैपटॉप या कम्प्यूटर की की-बोर्ड पर अँगुलियाँ घुमाने में कहाँ ? नैज़े की कलम से, खड़िया की सफेद स्याही को बुदक्के में भरकर, बार-बार कलम को डुबा-डुबाकर एक-एक अक्षर को मोती-सा टाँकना, कितना मन-भावन होता था। और वह भी टाट के बोरे पर बैठकर। कोई फर्नीचर नहीं, कोई सीटिंग एरेंजमेंट नहीं, जहाँ बोरा बिछा दिया, बस बन गया वहीं क्लास-रूम।
और रिसेस के बाद तो पूरे स्कूल की सभी कक्षाऐं दो भागों में बँट जाती थीं और फिर शुरू हो जाता था, दो से पच्चीस तक के पहाड़ों का बोलना। एक टीम बोलती, दो एकम दो तो दूसरी बोलती, दो दूना चार...और इसके बाद फिर ढ़इय्या, अध्धा, पौना और सबैय्या। सबको सब कुछ तोते की तरह रटे पड़े थे। रोज़ाना जो बोलने पड़ते थे। दिमाग ही कैलक्यूलेटर और कम्प्यूटर बन जाता था।
गलती करने पर पाँच सन्टी की सजा तो सामान्य सजा ही मानी जाती थी, शीशम की सन्टी का ही प्रचलन था तब और हर सन्टी पर चींख-सी निकल जाती थी बालकों की। पर मज़ाल है कि कोई वाली आकर कह दे कि मास्टर जी आपने मेरे बालक को क्यों मारा? हाँ, ऐसा तो जरूर कहने आते थे कि मास्टर जी अगर ये कोई गलती करे तो इसे मार-मार कर सुधारिये। इसे अपना बच्चा ही समझिये। आत्मीयता भी थी तब और कर्तव्य का बोध भी।
और इतना ही नहीं, इससे बड़ी सजा होती थी मुर्गा बनाने की। यानी अगर गलती करोगे तो फिर मनुष्य योनी से मुर्गा-योनी में प्रवेश। और कुछ समय के लिये मुर्गा बना दिया जाता था। और कभी-कभी तो निर्जीव कुर्सी भी बना दिया जाता था और उस बाल-कुर्सी पर किसी बालक को बैठा भी दिया जाता था या फिर सिर पर ईंट रख दी जाती थी और ईंट गिरने पर फिर वही पाँच सन्टी की सजा। जी हाँ, वही शीशम की सन्टी। चरित्र-निर्माण और न्याय के साथ कोई समझौता नही किया जाता था। निष्पक्ष न्याय होता था मास्टर जी के दरबार में।
मैं पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था। यूँ तो मेरी गिनती स्कूल के अच्छे बच्चों में होती थी और सभी शिक्षकों का स्नेह मेरे ऊपर रहता था फिर भी मुझे सबसे अधिक डर लगता था तो वो थे मेरे स्कूल के हैड-मास्टर साहब और हैड मास्टर साहब, अगर सबसे अधिक किसी को प्यार करते थे, तो वह मैं था।
कारण मुझे पता नहीं, पर मैं तो यह ही मानता था कि मैं पढ़ने में होशियार हूँ और हैड मास्टर जी का सब काम दौड़-दौड़ कर कर देता हूँ। मसलन चॉक लेकर आना या बोर्ड को साफ करके रखना या फिर जब कभी उनका आदेश होता तो बाहर लगे हैन्ड-पम्प से ठन्डे-ठन्डे पानी का गिलास भरकर ले आना। पानी तो वे अक्सर मेरे हाथ का ही पिया करते थे। और मैं भी पानी लाने में साफ-सफाई का बहुत ध्यान रखता था शायद इसलिये या और कुछ। पर कारण का मुझे पता नहीं।
उन्हीं दिनों म्युनिस्पलटी के चुनाव होने वाले थे और प्राइमरी स्कूलस् म्युनिस्पल बोर्ड के अन्तर्गत आते थे। चुनाव सम्बन्धी कार्य प्राइमरी स्कूलस् के टीचर्स और हैड-मास्टर्स को सोंपे गये थे। और सभी शिक्षकों को निर्धारित वार्ड में जाकर चुनाव की वोटिंग पर्चियों को बाँटना तथा अन्य कार्य सोंपे गये थे। हैड मास्टर साहब को जो वार्ड सोंपा गया था उसी वार्ड में मेरा घर था। और यह सब काम स्कूल छूटने के बाद ही करना होता था।
शाम का समय था घर के बाहर चौक में मैं अपने साथियों के साथ खेल रहा था। और इसी समय हैड मास्टर साहब का आना हुआ, हैड मास्टर साहब को देखते ही खेल तो तुरन्त बन्द हो गया और सभी साथी, जिज्ञासा-वश हैड मास्टर साहब के पास पहुँच गये। पर मैं दौड़ कर घर पहुँचा और माता जी को बताया कि मेरे स्कूल के हैड मास्टर साहब बाहर आये हुये हैं अतः वे घर से बाहर न निकलें और घर के अन्दर ही रहें।
उन दिनों पर्दा-प्रथा का प्रचलन था। और मेरे संस्कारों के हिसाब से मेरी माता जी को हैड मास्टर साहब के सामने जाना सर्वथा अनुचित ही था। अतः मैं अपनी माता जी के पैरों से लिपटकर धक्का देते-देते उन्हें दरवाजे के अन्दर ले जाने का प्रयास करने लगा। यह सोचकर कि अगर मेरे हैड मास्टर साहब ने मेरी माता जी को देख लिया तो लोग क्या कहेंगे।
और उधर जितनी तेजी से मैं माता जी के पैरों से लिपटकर उन्हें घर के अन्दर की ओर धक्का दे रहा था उससे दुगनी तेज गति से हैड मास्टर साहब मेरी माता जी की ओर बढ़े आ रहे थे। इतनी स्फूर्ति मैंने हैड मास्टर साहब में कभी भी नहीं देखी थी। इस दौड़ में, मैं तो हार ही गया और हैड मास्टर साहब अपने लक्ष्य पर पहले पहुँचने में सफल हो गये। और हैड मास्टर साहब ने झुककर माता जी के पैर छू ही लिये। गले से लगा लिया था हैड मास्टर साहब को, माता जी ने। आशीर्वाद की बर्षा हो रही थी।
मैं कभी हैड मास्टर साहब को, तो कभी माता जी को, और कभी अपने आप को देख रहा था। क्या माज़रा है कुछ भी तो समझ में नहीं आ रहा था। मेरे स्कूल के हैड मास्टर साहब, जिनकी छाया मात्र से ही, मैं थर-थर काँपने लगता था, वे हैड मास्टर साहब, मेरी माता जी के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं।
समझ नहीं आ रहा था कि मेरे हैड मास्टर साहब धन्य हैं या मेरी माता जी धन्य हैं या फिर मैं।
पर धन्य तो हमारी भारतीय संस्कृति है जिसने हमें ऐसे संस्कार दिये। हम उन्हें भूल ही जायें तो इसमें संस्कृति का क्या दोष।
"कैसे हो बेटा, सब ठीक-ठाक है न। इधर काफी समय से मिले नहीं। कोई परेशानी तो नहीं है।" माता जी ने बड़े ही स्नेहिल भाव से हैड मास्टर साहब से पूछा।
"बस, माता जी आपका आशीर्वाद है। गाँव गया था, बेटी की शादी कर दी है, लड़का गाँव में ही लेखपाल है। बाकी सब ठीक है।" हैड मास्टर साहब ने माता जी से कहा।
"चलो अच्छा हुआ बेटा, एक जिम्मेदारी तो पूरी हुई। कभी-कभार तो घूम जाया कर, चिन्ता बनी रहती है।" माता जी ने प्यार भरे लहज़े में कहा।
माता जी से मिलने के बाद हैड मास्टर साहब, अपने चुनाव के कामों में व्यस्त हो गये। मुहल्ले में चुनाव की पर्चियाँ बाँट कर चले गये। पर आज तक वे मेरे मन से नहीं जा सके। और विनम्रता का पाठ सिखा गये। हैड मास्टर साहब ने मेरी माता जी के पैर क्या छुये, मेरे मन को ही छू लिया।
मैंने माता जी से पूछा तो उन्होंने बताया-"बेटा, तेरे हैड मास्टर साहब को, तेरे पिता जी ने पढ़ाया था इसलिये वे मेरे पैर छूते हैं। मैं उनकी गुरु-माँ हूँ न।"
और तब मैं समझ पाया था गुरू और माँ की महिमा को। सच में, माँ तो आखिर माँ ही होती है।
दूसरे दिन स्कूल पहुँच कर सबसे पहले मैंने गुरू जी के पैर छुए थे, सच में मैंने पैर ही नहीं, उनका हृदय छू लिया था। भरी क्लास में गोदी में उठाकर, गले से लगा लिया था हैड मास्टर साहब ने। बज्र-सा हिमालय पानी-पानी होते देखा था उस दिन मैंने और मेरी आँखों से गंगा ही तो वह निकली थी। और तब मैंने जाना था कि आशीर्वाद की गंगा तो चरणों से ही निकलती है और धारण की जाती है ललाट पर।
***  



-आनन्द विश्वास

Wednesday, 11 August 2021

“हम मोटी चमड़ी वाले हैं”

हम
 मोटी  चमड़ी वाले हैं, हम नहीं  सुधरने वाले हैं।
चलती है सत्ता  हमसे ही,  हम  सत्ता  के रखवाले हैं।
काला   धन   हमने  पाया  है,
मुश्किल  से  इसे  कमाया  है।
कितना  लम्बा ये जाल  बुना,
मुश्किल  से  इसे   बनाया  हैं।
चुल्लू में  सागर पी जायें, हम ऐसे ज़ालिम विषधर हैं।
छोटी मछली, मोटी मछली, सागर में अजगर पाले हैं।
तुमको  जो  करना  है  कर  लो,
हमको  जो  करना  है  कर  लें।
तुम कहकर  मन हल्का कर लो,
हम  अपना  घर  थोड़ा भर  लें।
मत और न हमको तंग करो, हमसे ना कोई जंग करो।
हम अब तक  खाते आये हैं, आगे भी खाने वाले हैं।
तुमको  क्यों  दर्द  हुआ करता,
हर  जन  तो यही दुआ करता।
धन-दौलत  सबके  घर  आये,
खुशहाली  घर - घर  में  छाये।
तुम संग हमारे आ जाओ,पल भर में दौलत पा जाओ।
हम साथ निभाते आये हैं, हम साथ  निभाने  वाले हैं।
तुम  कहते  हो  जिसे  जेल  है,
जेल  नहीं  है, यही   खेल  है।
जनता  से   रक्षा   मिलती  है,
फिर  कड़ी  सुरक्षा  मिलती है।
जिन डॉन-डकैतों से दुनियाँ, डरती  है अरु थर्राती  है,
उनके संग अपना मेल-जोल, वे ही तो हमें सम्हाले हैं।
कितने दिन से तुम खाँस रहे,
मेरे  भैया  कुछ  ले  लो  ना।
पकड़ो  तुम मेरा  हाथ  सखे,
बहती गंगा, मुँह धो  लो ना।
सुख-चैन तुम्हारे द्वार खड़ा, आगत का स्वागत कर लो ना,
ये  दुनियाँ  आनी-जानी  है,  हम  सब  भी  जाने वाले हैं।
काला  धन है, काला  मन  है,
मुँह भी तो  अपना  काला है।
सूरदास  की  कमरी  अपनी,
कोई  रंग   चढ़ने वाला है।
पुस्तैनी-पेढ़ी है अपनी, अपना  ही  सिक्का  चलता है,
अपना ही जलवा यहाँ-वहाँ, बाकी सब जलने वाले हैं।
ये   मंज़िल  है   नहीं  हमारी,
ये    तो    सिर्फ   पड़ाव   है।
सिक्का अपना चले  विश्व में,
ऐसा  बस अपना  ख्वाब  है।
बहुत सुनी जनता की गाली और बहुत सी लम्पट बातें,
अब और न  सहने वाले  हैं, हम जाँच  कराने वाले  हैं।
-आनन्द विश्वास. 









Thursday, 29 July 2021

"प्रकृति विनाशक आखिर क्यों है?"

बिस्तर  गोल  हुआ सर्दी का,
अब  गर्मी   की  बारी  आई।
आसमान  से आग  बरसती,
त्राहिमाम्  दुनियाँ  चिल्लाई।
 
उफ़  गर्मी,  क्या  गर्मी  ये है,
सूरज   की  हठधर्मी  ये  है।
प्रकृति विनाशक आखिर क्यों है,
किस-किस की दुष्कर्मी ये है।
 
इसकी गलती, उसकी गलती,
किसको गलत, सही हम बोलें।
लेकिन कुछ तो कहीं गलत है,
अपने  मन  को  जरा  टटोलें।
 
थोड़ी    गर्मी,   थोड़ी   सर्दी,
थोड़ी   वर्षा  हमको  भाती।
लेकिन अति हो किसी बात की,
नहीं  किसी को कभी सुहाती।
 
लेकिन यहाँ न थोड़ा कुछ भी,
अति होती, बस अति ही होती।
बादल फटते  थोक  भाव  में,
और  सुनामी  छक कर होती।
 
ज्यादा बारिश, बादल फटना,
चट्टानों   का   रोज़   दरकना।
पानी-पानी  सब  कुछ  होना,
शुभ  संकेत  नहीं  ये  घटना।
 
आखिर ऐसा सब कुछ क्यूँ है,
रौद्र-रूप  कुदरत  का  क्यूँ  है।
वहशी, सनकी, पागल, मानव,
खुद को  चतुर समझता क्यूँ है।
 
बित्ता भर  के  वहशी  मानव,
अब तो बात मान ले सनकी।
तेरे  कृत्य   जन  हितकारी,
सुन ले अब कुदरत के मन की।
 
मिल-जुलकर, चल पेड़ लगा ले,
जल, थल, वायु  शुद्ध  बना  ले।
हरियाली   धरती  पर  ला  कर,
रुष्ट प्रकृति  को  आज  मना ले।
 
रुष्ट  प्रकृति  जब  मन  जाएगी,
बात  तभी  फिर  बन  जाएगी।
खुशहाली  होगी  हर  मन  में,
हरियाली  चहुँ  दिश  छाएगी।
 
सृष्टि-सृजन  के पाँच  तत्व हैं,
जब तक  ये सब  शुद्ध  रहेंगे।
तब तक  अनहोनी  ना होनी,
सुख-सरिता,  जलधार बहेंगे।
 
दूषित  तत्व  विनाशक होते,
ये विनाश की कथा लिखेंगे।
प्रकृति और मानव-मन दोनों,
विध्वंसक  हो,  प्रलय रचेंगे।
-आनन्द विश्वास


Sunday, 28 March 2021

"पाँच-सात-पाँच"

1.
हमने माना
पानी नहीं बहाना
तुम भी मानो।
2.
छेड़ोगो तुम
अगर प्रकृति को
तो भुगतोगे।
3.
जल-जंजाल
न बने जीवन का
जरा विचारो।
4.
सूखा ही सूखा
क्यों है चारों ओर
सोचो तो सही।
5.
पानी या खून
हर बूँद अमूल्य
मत बहाओ।
6.
खून नसों में
बहता अच्छा, नहीं
सड़क पर।
7.
सुनो सब की
सोचो समझो और
करो मन की
8.
घड़ी की सुईं
चलकर कहती
चलते रहो।
9.
रोना हँसना
बोलो कौन सिखाता
खुद आ जाता।
10.
सूखा ही सूखा
प्यासा मन तरसा
हुआ उदासा।
11.
भ्रष्टाचार से
देश को बचाएंगे
संकल्प करें।
12.
आतंकवाद
समूल मिटाना है
मन में ठानें।
13.
नैतिक मूल्य
होते हैं सर्वोपरि
मन से मानें।
14.
गेंहूँ जौ चना
कैसे हो और घना
हमें सोचना।
15.
मन की बात
सोचो, समझो और
मनन करो।
16.
देश बढ़ेगा
अपने दम पर
आगे ही आगे।
17.
अपना घर
तन-मन-धन से
स्वच्छ बनाएं।
18.
विद्या मन्दिर
नारों का अखाड़ा है
ये नज़ारा है।
19.
सब के सब
एक को हटाने में
एक मत हैं।
20.
पहरेदार
हटे, तो काम बने
हम सब का।
21.
नहीं सुहाते
दोनों घर, हमको
बिन कुर्सी के।
22.
नारी सुरक्षा
आकाश हुआ मौन
मत चिल्लाओ।
23.
सूखा ही सूखा
बादल हैं लाचार
रोती धरती।
24.
दीप तो जले
उजाला नहीं हुआ
दीप के तले।
25.
जागते रहो
कह कर, सो गया
पहरेदार।
26.
फसल कटी
बेचारे किसान की
ब्याज में पटी।
27.
हवा बचाओ
विषैली न बनाओ
मान भी जाओ।
28.
कर्तव्य करो
अधिकार मिलेगा
खुद व खुद।
29.
घड़ी की सुईं
टिक टिक कहती
टिकती नहीं।
30.
डूबता हुआ
सूरज बोल गया
कल आऊँगा।
31.
सूखे पलाश
बात है कुछ खास
मन उदास।
32.
दिवाली पर
सब दीप जलाएं
नहीं पटाखे।
33.
बिल की आग
बिलबिलाते कीड़े
भागमभाग।
34.
जब जब भी
मेरा मन पिघला
आँसू निकला।
35.
एक दो तीन
चार पाँच छःसात
आठ नो दस।
***
-आनन्द विश्वास