Wednesday 11 May 2011

सिर्फ मुझको वरो

सिर्फ मुझको वरो
मेरे  दर्द   मेरेसिर्फ    मुझको  वरो,
क्वारी   ये  लगन  है,   सुहागन  करो।
मेरा   मन  है  कहीं, 
और  तन   है  कहीं,
नाम   तेरा    लिया,
जाम   लेना    नहीं.
रात  जाती  रही, अब  तो धीरज धरो,
मेरे  दर्द    मेरे सिर्फ    मुझको  वरो।
प्यार  उर  से  किया,
सिर्फ   उर   में   रहे।
दर्द     सहता    रहे,
ना कि  लब  से कहे।
दर्द   घुलता  रहेमुझसे   वादा  करो,
मेरे  दर्द    मेरे सिर्फ    मुझको  वरो।
प्यार   होता   अमर, 
किसके   रोके  रुका। 
तन  से  रिश्ता  नहीं, 
मन से जग भी झुका।
तन से  ना ही सही, मन  से बातें  करो,
मेरे  दर्द    मेरे सिर्फ    मुझको  वरो।
...आनन्द विश्वास.

Thursday 5 May 2011

अश्रु गगन झकझोर दिया, क्यों ?

  अश्रु गगन झकझोर दिया, क्यों ?

मेरा    सीमित    वातायन   था,
अपने  से   बस   अपनापन  था।
मेरा  अपनापन   सब   हर  कर,
निज  अपनापन  मेर दिया क्यों।
अश्रु गगन  झकझोर  दिया क्यों।

अन   व्याहे  सपनों   को   तुमने,
अनचाहे    अपनों   को    तुमने।
वन-वन   का   वासी  था  मैं तो,
स्वर्णिम आँचल छोर दिया, क्यों।
अश्रु गगन  झकझोर  दिया क्यों।

नयनों   के   नीले    आँगन   से,
नीलम    के   गीले   आँचल  से।
सपनों  का  घर  वार  लूट  कर,
बरबस रथ-पथ मोड़ दिया क्यों।  
अश्रु  गगन  झकझोर दिया क्यों।
    
किया   समर्पण   मैंने   किसको,
अनजाने   अपनाया     किसको।
ठगनी   माया     आनी    जानी,
राम भजन सब छोड़ दिया क्यों।  
अश्रु  गगन  झकझोर दिया क्यों।
                 
                ...आनन्द विश्वास 





दो मुक्तक

दो  मुक्तक 

जाने  क्या कर  दिया , हिया गाता है,
जाने क्या  वर  दिया, हिया  गाता  है.
नयनों के  प्यासे,  और उदासे मरु में,
जाने  क्या   भर दिया, हिया  गाता है.

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प्रीति  की  परछाईयों   को   छोड़  पाओगे  नहीं,
बंधनों   में  बंध  गये,  अब   तोड़  पाओगे  नहीं.
दूर   कितने   भी   चले  जाना,   नयन  से  तुम,
बिम्ब  उर  में  बन गया, मुह मोड़  पाओगे नहीं.


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 ........आनन्द विश्वास


                                    

निवेदन.

निवेदन.

ब्लॉग ' आनंद  विश्वास
' में प्रकाशित
सभी कविताएँ मेरी, मौलिक तथा अप्रकाशित हैं .
इनका कोई भी, किसी भी प्रकार का उपयोग करने
से पहले रचियता की अनुमित अवश्य ले लें .
                           
                          ........आनंद  विश्वास

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सौ-सौ जनम नहीं मिल पायें



                सौ-सौ जनम नहीं मिल पायें  
                          [मुजीव-वाणी]

मत छिडको तुम नमक घाव पर, मत मुझको तुम प्यार दो,  
इतने  घाव लगे  हैं उर  में, सौ - सौ  जनम  नहीं  भर पायें.

शासक  हो  कर  तुम  जनता  का  शोषण  करते,  
भाई  हो  कर   तुमबहनों   की  मर्यादा   हरते.  
तुम रिपु  कहते  जिन्हें, आज वे  बने  कृष्ण सम,  
लाखों  द्रुपदाओं   कोचीर   उढ़ातेरक्षा   करते.

एक  पाक  काएक  राष्ट्र  कामत मुझको उपदेश दो,  
इतने भाग हुये हैं घट केसौ-सौ जनम नहीं मिल पायें.

देख  तुम्हारी  परम   वीरता, कायरता  भी  शरमाई,  
संगीन  भोंकते बच्चों   को, तुमको  शर्म  नहीं आई.  
जिन  पापों को, घृणित  कार्य को, कह न  सकें हम,  
सरे आम सड़कों पर करते, तुमको लाज   नहीं आई .

सदाचार  काधर्म शास्त्र   का, मत  मुझको   उपदेश दो,  
इतने  दाग लगे  दामन में, सौ-सौ  जनम  नहीं धुल पायें.

अबलाओं के  सबल  हस्त को, तुमने नहीं  निहारा है,  
फूल   सुकोमल  नारी  ने, चंडी  का  रूप   संवारा  है.  
जब - जब  भी  चूड़ी  तजशमशीर  उठाई  नारी  ने,  
दुश्मन उलटे  पांव  भगा, या जड़ से किया किनारा है.

अबहमने  मरना  सीख लिया  है, जीने का   अधिकार है,  
इतने त्याग किये है   हमने, सौ-सौ  जनम   नहीं मर पायें.

आजादी  का   बंदी  मैं, तुमने  मानव  संहार  किया,  
खून पिया तुमने मानव  का, मैंने  उसका  दर्द पिया.  
हंस  बचाने   की  खातिर, आदर्शो  में बड़ी विषमता,  
गौतम  ने  हैं   प्राण  बचायेदेवदत्त  ने  वार  किया.

आदर्श   हमारे  भिन्न - भिन्न  हैं, एक   नदी दो  पाट से,  
इतने दूर  हो चुके  तुमसे, सो-सो   जनम  नहीं मिल पायें.

 ....आनंद विश्वास

भोर ये अँधेरा क्यों ...


                भोर ये अँधेरा क्यों ...
 
    
भोर ये  अँधेरा   क्यों, ऐसा  ये सबेरा  क्यों,
     शंकर  का  द्वार  आज,  सर्पों  ने  घेरा  क्यों.

     शंकर  की  प्रितमा  को,
     सर्पों   ने    सजाया   है.
     वीर   बाल   बधने  को,
     चक्र व्यूह    रचाया   है.

                      स्थिरता     लाने   को,
                      कोरे     बहकाने    को.
                      पतझड़  में प्यार  भरा,
                      गीत   आज   गाया  है.

     कोरा ये 
ढिढोरा   क्यों,  सूरज का ढुंढेरा क्यों, 
     भोर ये  अँधेरा  क्यों,...........................

     भावों  के   अभावों  को,
     मंच   पर    चढ़ाया   है,
     मरुथल के  कागज  पर,
     नदी    को    बहाया   है.

                       मानवी    विचारों    पर,
                       नदी   के   किनारों   पर.
                       सभ्यता  को  नग्न  कर,
                       कफन   बेच    खाया  है. 

     लाश का लुटेरा क्यों, चीलों  का बसेरा  क्यों,
    
भोर ये  अँधेरा  क्यों,............................

     सूरज   के   वंशज   को,
     तिमिर   आज   भाया है.
     स्वार्थ  का  नग्न - नाँच,
     नयनों   में   समाया   हैं.

                    कस्तूरी    हिरणों    को,
                    अनजाने    चरणों   को.          
                    शतरंजी     खेल     का,

                    मोहरा      बनाया     है,

     बगिया  को  उजेडा क्यों, शूलों को बिखेरा  क्यों,
 
    भोर ये अँधेरा क्यों,................................
 
                                          ...आनन्द विश्वास .

"तोतली प्रीति क्यों गँवाई"

सुधियों
के  छितिज   से, पुरवा   वह  आई,
जन्मों  की सोई  हुई, हर पीर  उभर आई।
मौसम   का दोष नहीं,
सुधियाँ  वेहोश   नहीं।
योवन  मदहोश   हुआ,
अखियाँ  निर्दोष  नहीं।

सुधियों के सागर में, लहराती लहर आई,
जन्मों की  सोई  हुई,हर पीर उभर आई।
यादों   के दीप  जले,
अँधियारा दीप तले।
रेतीले  मीत    मिले,
मेरा     विश्वास  गले।

आशा  की मेंहदी  भीमातम  ले  आई,
जन्मों की  सोई  हुई,हर पीर उभर आई।
कैसा ये   प्यार किया ,
हर पल बेकार  जिया।
उनको एहसास   नहीं,
जीवन क्यों वार दिया।

सांसों के पनघट पर, क्यों गगरी रितवाई,
जन्मों की सोई हुईहर पीर उभर  आई।
बचपन का साथ छुटा,
भोला सा  प्यार  लुटा।
योवन   दीवार    बना,
आँखों  में  प्यार  घुटा।

योवन में आग लगे, तोतली प्रीति क्यों गंवाई,
जन्मों की  सोई हुईहर  पीर  उभर  आई।
-आनन्द  विश्वास।

भारत की रीति पुरानी है

यह  कौन हमारे  हिमगिरि पर,
जिसके   हाथों   में  प्याला   है।
क्या  पता नहीं  इस दुश्मन को,
इस  ओर  धधकती  ज्वाला  है।

शायद   यह  मित्र  पढ़ोसी   है,
जिसको  कुछ आगे  कम पड़ा।
यह मित्र  नहीं यह  दुश्मन  है,
जो  अपने  आगे  आज   खड़ा।

ठहरो! चाऊ, चीन के शासक,
मत    आगे  कदम    बढाओ।
साम्राज्य   वाद   के  धोके   में,
मत   पूर्व   प्रतिज्ञा   विसराओ.

चीन   देश  से  आ  कर  तुमने,
पंचशील    की   कसमें   खाईं।
दूर    हटायेंगे    विनाश    को,
हिंदी  -  चीनी     भाई  -  भाई।

भूल   गये  अपने  बचनों  को,
जब  अफीम  का  नशा  चढ़ा।
गिरगिट   सा रंग  बदल डाला,
खंजर  लेकर  हो  गया  खड़ा।

तुमने   सोचा   हम  हैं  कायर,
पंचशील    सिध्दांत     मानते।

नहीं   जानते, शिवा  प्रताप के,
वीरों   के  गुण  हम  बखानते।

यदि   अपनी लज्जा  रखनी  है,
तो  वापस चीन देश को जाओ।
वरना   अपने  चपटे  चेहरे  पर,
कफ़न  बांध   कर  आ   जाओ।

शंकर   समाधि   में   बैठे    हैं,
वे   आज   कहीं   जग  जायेंगे।
उनको  न  जगा  ऐ  मूर्ख नीच,
जगती   में   प्रलय    मचाएंगे।

वीर  शिवा  जी  जगा  खड़ा  है,
राणा    भी      हुँकार      उठा।
माता   की   लाज   बचाने  को,
चंडी   का   खप्पर   जाग उठा।

भारत  का  हर जन  मतवाला,
मत  समझो  भाल  झुका देंगे।
लाशों    की   टाल  लगा  देंगे,
पर  जड़  से  तुझे  मिटा  देंगे।

बच्चा - बच्चा   बलिदानी   है,
जन-जन पर चढ़ी  जवानी है।
आजाद   रहो  या  मर  जाओ,
भारत  की   रीति   पुरानी  है।

(रचना काल - १९६३)
-आनन्द विश्वास

Sunday 1 May 2011

गोबर, तुम केवल गोबर हो.....


गोबर, तुम केवल गोबर हो.....

गोबर,
तुम केवल गोबर हो,
या, सारे जग की, सकल धरोहर हो.
तुम से ही निर्मित , जन -जन का जीवन.
तुम से ही निर्मित , अन्न फसल का हर कन.
तुम आदि अंत,
तुम दिक् दिगंत .
तुम प्रकृति नटी के प्राण,
तुम्हारा अभिनन्दन .
वैसे तो -
लोग तुम्हें गोबर कहते,
पर तुम, पर के लिये,
स्वयं को अर्पित करते.
माटी में मिल , माटी को कंचन कर देते.
कृषक , देश का,
होता भाग्य विधाता ,

उसी कृषक के,
तुम हो
भाग्य विधाता .
अधिक अन्न उपजा कर,
तुम, उसका भाग्य बदल देते.
और, तुम्हारे उपले-कंडे,
कलावती के घर में,
खाना रोज पकाते हैं.
तुमसे लिपे - पुते घर आँगन,
स्वास्थ्य दृष्टि से,
सर्वोत्तम कहलाते हैं.
गोबर - गैस का प्लांट तुम्हारा,
सबसे सुन्दर, सबसे प्यारा.
खेतों में देता हरियाली ,
गाँवों में देता उजियारा
भूल हुई मानव से जिसने ,
तुम्हें नहीं पहचाना.
भूल गया उपकार तुम्हारे,
खुद को ही सब कुछ माना.

           .....आनंद विश्वास


और रात भी बीती ..


और रात भी बीती ..


और     रात     भी     बीती    रोते,
अश्रु   नयन    के   उर    में   बोते।

सारी    उम्र     बिता     डाली    है,
अपनी    लाश    स्वयं    ही   ढोते।

कितनी   ख़ुशी   मुझे   होती, मन, 
मेरे    साथ,    अगर    तुम    होते।

दो  पल   की   इस  धूप - छाँव  में,
हिल मिल  हँसते,  हिल  मिल रोते।
 
आँसू    के     खारे     सागर     में,
मीठा  -  मीठा     प्यार      समोते।

जीने    को    अब   भी    जी  लेंगे,
तुम   होते    तो    गीत    न   रोते।

एक   प्राण    में   दो  तन   थे  हम,
इक    नदिया   के   तीर   न  होते।
 


                    ...आनन्द  विश्वास.


कौन सुनेगा गीत .....


               
कौन सुनेगा गीत .....


कौन  सुनेगा  गीत  विरह  के,   लिखना  ही बेकार है.
पीर पिउँ बस, निज अधरों से,  इतना ही अधिकार है.


पीर -पीर को पिरोह पिरोह कर,
पहिने   हूँ   अनगिन    मालाएँ.
कदम - कदम पर  ठोकर खातीं,
अंतर    की    सारी       आशाएँ

कौन   पियेगा   पीर   ह्रदय  की,  मतलब का संसार है
कौन सुनेगा गीत................................................


रंग   महल  में  रंग - बिरंगा,
वातायन   उल्लास   भरा  है.
कूकें   कोयल,कलियाँ महकें ,
सारा   उपवन   हरा  भरा  है.

कौन  सुनेगा  हूक  ह्रदय  की, सूना   सब  घर  द्वार  है.
कौन सुनेगा गीत..............................................


तूफानों    से  जा    टकराया,
लहरों   ने  उठ  गले  लगाया.
छोड़  दिया अब बीच छीर में,
समझौता  कब  उन्हें  सुहाया.

कौन   बनेगा  मांझी   मेरा,  नैय्या   बिन   पतवार  है. 
कौन सुनेगा गीत...................................................



                                       ..........आनन्द विश्वास             
                     

कुछ मुक्तक...

कुछ मुक्तक...
 
मैं   अभावों    में   पला  हूँ,
मुश्किलों  में,  मैं   ढला हूँ.
पाँव  सयंम  के  बढ़ा  कर,
तिमिर  से  लड़ने  चला हूँ.
 
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दर्दीले  गीत,  तुम्हारे  लिये  हिया  रोता  है.
रूंठे  संगीत,  तुम्हारे  लिये  हिया  रोता  है.
बचपन में खेले साथ, अब रहते हर पल दूर,
रेतीले  मीत, तुम्हारे   लिये  हिया  रोता  है.

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हर   रुदन  को,  हास  देता  जा  रहा  हूँ,
हर  अमाँ   को  प्रात   देता  जा  रहा  हूँ.
याद  को  चिरसंगिनी  अपनी  बना कर,
प्यार   को   विश्वास   देता  जा   रहा  हूँ.

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                               ....आनन्द विश्वास.

हम बच्चे हिंदुस्तान के


          हम   बच्चे  हिंदुस्तान  के.


          शीश   झुकाना  नहीं  जानते,
          शीश   कटाना    ही     जाना।
          मेरा  मजहब  मुझको  प्यारा,
          पर  का  मजहब   कब  माना।


                              गोविन्द सिंह के  वीर  सिंह,
                              हम  पले  सदा  तलवारों  में।
                              अपने   बच्चे  चिनवा  डाले,
                              जीते      जी     दीवारों    में।

                                              रग-रग   में  है स्वाभिमान,
                                              हम  चलते सीना तान   के।
          

                                              हम   बच्चे  हिन्हुस्तान के।

         
          सागर
  हमसे  थर-थर कांपे,
          पर्वत   शीश    झुकाता   है।
          तूफानों   की  राह  मोड़ कर,
          वीर    सदा   मुस्काता    है।

                              राणा - सांगा के  हम वंशज,
                              और   शिवा  के  हम   भाई।
                              परवसता   की   बेडी  काटी,
                              और   घास  की  रोटी  खाई।

                                            स्वाभिमान की जलती ज्वाला,
                                            हम   जौहर   राजस्थान   के।
          

                                            हम   बच्चे   हिन्हुस्तान  के।


          गौतम   गाँधी  के  हम साधक,
          विश्व    शांति    के    अनुयायी।
          मानवता    के  लिए    जियेंगे ,
          राजघाट   पर    कसमें    खाईं।

                             इन्गिलश  भारत माँ के गहने,
                             हिंदी   है    माता    की   बिंदी।
                             गुजराती  परिधान  पहन  कर,
                             गाना    गाते    हम      सिंधी।

                                             शांति  - दूतहम क्रांति - दूत,
                                             हम   तारे   नील  वितान   के।
    

                                             हम    बच्चे   हिन्हुस्तान  के।

                                               ... आनन्द विश्वास