बिस्तर गोल हुआ सर्दी का,
अब गर्मी की बारी आई।आसमान से आग बरसती,
त्राहिमाम् दुनियाँ चिल्लाई।
सूरज की हठधर्मी ये है।
किस-किस की दुष्कर्मी ये है।
किसको गलत, सही हम बोलें।
लेकिन कुछ तो कहीं गलत है,
अपने मन को जरा टटोलें।
नहीं किसी को कभी सुहाती।
अति होती, बस अति ही होती।
बादल फटते थोक भाव में,
और सुनामी छक कर होती।
चट्टानों का रोज़ दरकना।
शुभ संकेत नहीं ये घटना।
रौद्र-रूप कुदरत का क्यूँ है।
वहशी, सनकी, पागल, मानव,
खुद को चतुर समझता क्यूँ है।
अब तो बात मान ले सनकी।
तेरे कृत्य न जन हितकारी,
सुन ले अब कुदरत के मन की।
जल, थल, वायु शुद्ध बना ले।
हरियाली धरती पर ला कर,
बात तभी फिर बन जाएगी।
खुशहाली होगी हर मन में,
हरियाली चहुँ दिश छाएगी।
जब तक ये सब शुद्ध रहेंगे।
तब तक अनहोनी ना होनी,
सुख-सरिता, जलधार बहेंगे।
ये विनाश की कथा लिखेंगे।
प्रकृति और मानव-मन दोनों,
विध्वंसक हो, प्रलय रचेंगे।
-आनन्द विश्वास

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