मैंने जाने गीत विरह के, मधुमासों की आस नहीं है,
कदम-कदम पर मिली विवशता, साँसों में
विश्वास नहीं है।
छल से छला गया है जीवन,
आजीवन का था समझौता।
लहरों
ने पतवार
छीन ली,
नैया
जाती खाती
गोता।
किस सागर जा करूँ याचना, अब अधरों पर
प्यास नहीं है,
मैंने जाने गीत विरह के, मधुमासों की आस नहीं है।
मेरे
सीमित वातायन में,
अनजाने आ किया बसेरा।
प्रेम-भाव का
दिया जलाया,
आज बुझा, कर दिया अंधेरा।
कितने सागर बह-बह निकलें, आँखों को एहसास
नहीं है,
मैंने जाने गीत विरह के, मधुमासों की आस नहीं है।
मरुथल में
बहतीं दो नदियाँ,
कब तक प्यासा उर सींचेंगीं।
सागर
से मिलने को
आतुर,
दर-दर पर कब तक भटकेंगीं।
तूफानों से लड़-लड़ जी लूँ, इतनी तो अब साँस नहीं है,
मैंने जाने गीत विरह के,
मधुमासों की आस नहीं है।
विश्वासों
की लाश लिये मैं,
कब तक सपनों के
संग खेलूँ।
सोई - सोई
सी प्रतिमा को,
सत्य समझ कब तक मैं बहलूँ।
मिथ्या जग में सच हों सपने, मुझको यह एहसास नहीं है,
मैंने जाने गीत विरह के, मधुमासों की आस नहीं है।
-आनन्द विश्वास
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
12/07/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
वाह
ReplyDeleteमित्र मधुमासों की आस पर ही विरह की यात्रा आनन्ददायक हो जाती है, जहाँ तक मुझे लगता है। वैसे बहुत सुन्दर गीत।
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