सजनवा के गाँव चले
सूरज
उगे या शाम ढले,
मेरे
पाँव सजनवा के गाँव
चले।
सपनों की रंगीन दुनियाँ लिये,
प्यासे उर में वसन्ती
तमन्ना लिये।
मेरे हँसते अधर,
मेरे बढ़ते कदम,
अश्रुओं की सजीली सी लड़ियाँ लिये।
कोई
हँसे या कोई जले,
मेरे
पाँव सजनवा के गाँव चले।
आज पहला मिलन है अनोंखा मिलन,
धीर धूलि हुआ, जाने
कैसी लगन।
रात होने लगी, साँस
खोने लगी,
चाँद तारे चमकते बहकते
नयन।
कोई
मिले
या कोई छले,
मेरे
पाँव सजनवा के
गाँव चले।
दो हृदय का मिलन बन गया अब रुदन,
हैं बिलखते हृदय
तो बरसते नयन।
आत्मा तो मिली
जा प्रखर तेज
से,
है यहाँ पर बिरह तो, वहाँ पर मिलन।
श्रेय
मिले या प्रेय मिले,
मेरे
पाँव सजनवा के गाँव
चले।
दुलहन आत्मा चल पड़ी देह से,
दो नयन मिल
गये जा परम गेह से।
माँ की ममता
लिये देह रोती
रही,
मग भिगोती रही
प्यार के मेह से।
ममता हँसे या आँसू झरे,
मेरे पाँव सजनवा के गाँव चले।
...आनन्द विश्वास
.
ReplyDeleteआदरणीय आनन्द विश्वास जी
सादर प्रणाम !
इतने ख़ूबसूरत गीतकार से आज तक मैं वंचित रहा … आज पहली बार आपके यहां पहुंच कर सबसे पहले तो यही अफ़सोस हो रहा है …
भाईजी, आपकी लेखनी को और आपको नमन है !
ब्लॉग पर लगी बहुत सारी रचनाएं तो पढ़ गया हूं … अभी तसल्ली से और पढ़ूंगा … और बार बार पढ़ने आऊंगा यह भी तय है । फॉलो भी किया है …
प्रस्तुत गीत का अंतिम चरण मात्र मन की ख़ुशी के लिए उद्धृत कर रहा हूं क्योंकि आपका पूरा गीत , हर रचना उद्धृत करने योग्य है …
दुल्हन आत्मा, चल पड़ी देह से,
दो नयन मिल गये, जा परम गेह से.
माँ की ममता लिये, देह रोती रही,
मग भिगोती रही, प्यार के मेह से.
ममता हँसे, या आँसू झरे,
मेरे पाँव, सजनवा ..............
क्या बात है ! बहुत ख़ूब !! साधुवाद !!
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
bahut sundar rachna..
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