Monday, 24 December 2012

*बर्थ-डे गिफ्ट*

*बर्थ-डे गिफ्ट*
बच्चों को कुछ भी याद रहे या न रहे, पर वे अपना बर्थ-डे तो कभी भी भूलते ही नही और उसकी तैयारी में तो वे कोई कोर कसर भी नही छोड़ते। पिछले बर्थ-डे से ज्यादा अच्छा तो होना ही चाहिये अगला बर्थ-डे। आखिर एक साल और बड़े हो गये हैं न।
कौन सी ड्रेस पहननी है इस बार। कौन-कौन से दोस्तों को बुलाना है इस बार। कौन-कौन से नये दोस्तों को शामिल करना है। सभी व्यवस्था अच्छी होनी चाहिये। किसी को कुछ कहने का मौका नहीं मिलना चाहिये और कौन सी गिफ्ट की डिमान्ड करनी है इस बार पापा से और कौन सी गिफ्ट लेनी है मम्मी से, वगैरा-वगैरा।
पर देवम तो इन सबसे दूर, उसके मन में तो ये सब कुछ, कुछ भी नहीं। कौन, कब, क्या और कैसे होना है ? सब पापा-मम्मी जानें। उसके मन में तो पापा-मम्मी की खुशी के सिवाय कुछ भी नहीं। और पापा-मम्मी के मन में देवम की खुशी के सिवाय कुछ भी नहीं। पापा-मम्मी का आदेश ही सर्वोपरि होता देवम के लिये। और सबसे ऊपर दादा जी का आदेश, बस और कुछ नहीं।
 और जब हितैषी और शुभचिन्तकों की बात चले तो भला डौगी को कैसे भूला जा सकता है। डौगी तो जैसे परिवार का एक अभिन्न अंग ही हो देवम के लिये।
जब से देवम ने होश सम्हाला है तब से ही डौगी को उसने अपने साथ पाया है। उसके हर पल की साथी, चौबीस घण्टे साथ रहने वाली उसकी हितैषी शुभ-चिन्तक, और वफादार प्यारी डौगी। एक समर्पित जीवन, केवल अपने स्वामी के लिये।
जब देवम स्कूल जाता तो उसे रिक्शे के पास तक पहुँचा कर आना और जब वापस आने का समय होता तो पहले से ही स्वागत के लिये पहुँच जाना। पूँछ हिला-हिला कर स्वागत कर देवम के साथ-साथ घर तक आना, सबसे अधिक प्राथमिकता वाला काम होता डौगी का।
देवम भी डौगी के साथ इतना रच-पच गया था कि जहाँ कहीं भी वह जाता और वहाँ यदि डौगी का जाना सम्भव होता तो वह डौगी को साथ ले कर ही जाता। सोसायटी के कोमन प्लोट में क्रिकेट खेलना हो या और कोई खेल हो, देवम के साथ डौगी जरूर होती।
सुबह जब मन्दिर दर्शन को जाता तो भी डौगी साथ ही जाती। डौगी मन्दिर के गेट पर रुक जाती और देवम के दर्शन करके वापस आने की प्रतीक्षा करती।
इतना ही नहीं देवम भी डौगी का पूरा ख्याल रखता। उसके खाने-पीने से ले कर रहने तक की पूरी व्यवस्था देवम ने अपने घर के बगीचे में ही कर रखी थी। डौगी तो देवम के परिवार का एक हिस्सा ही बन गई थी।
पर जैसे-जैसे देवम का जन्म दिन नजदीक आता जा रहा था, डौगी उतनी ही सुस्त और गम्भीर होती जा रही थी।
वैसे तो देवम जब भी स्कूल या बाजार जाता डौगी उसे सोसीयटी के गेट तक तो पहुँचाने जरूर ही जाती और घर के गेट पर उसके आने की प्रतीक्षा भी करती।
पर अब उसका अधिक समय आराम करने में ही बीतता। डौगी की गतिविधियों को देख कर देवम की मम्मी को इस बात का अन्दाज़ हो गया था कि अब कुछ ही दिनों में वह पिल्लों को जन्म देने वाली है। और देवम की मम्मी ने देवम से कह भी दिया था कि अभी डौगी की तबियत ठीक नहीं है, उसे आराम ही करने देना।
कल बर्थ-डे है और सुबह जल्दी उठना है, इस चिन्ता में देर रात गये तक देवम को नींद नहीं आई। यदि संकल्प और दृढ़-विश्वास हो तो सब कुछ सम्भव हो जाता है। सच्चे मन से किया हुआ संकल्प सदैव पूर्ण होता है। इसमें जरा भी संशय नहीं।
देवम और देवम की मम्मी सुबह जल्दी उठ कर नहा धो कर सबसे पहले मन्दिर दर्शन के लिये गये। वैसे तो डौगी हमेशा ही देवम के साथ ही मन्दिर जाती थी पर आज वह न तो मन्दिर ही गई और न गेट पर ही दिखाई दी।
और आज जब देवम अपनी मम्मी के साथ मन्दिर से घर पर वापस लौटा तो घर के पीछे बगीचे में से डौगी की आवाज सुनाई दी। जैसे वह आवाज लगाकर देवम को बुला रही हो।
देवम जब डौगी के पास पहुँचा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना ही न रहा। देवम तो खुश-खुश हो गया। अरे! वाह, कितने सुन्दर बच्चे।
उसने मम्मी को जोर से आवाज लगाई, देखो मम्मी, जल्दी से आओ।
क्यों, क्या हुआ, जो चिल्ला रहा है ? कहती हुईं  मम्मी देवम के पास तक पहुँचीं।
देखो मम्मी, कितने सुन्दर, छोटे-छोटे प्यारे बच्चे। देवम ने खुशी और उत्साह के साथ कहा।
हाँ, बच्चे तो प्यारे होते ही हैं। मम्मी ने स्नेहिल भाव से उत्तर दिया।
  नहीं मम्मी, अपनी डौगी के। देवम ने मम्मी को समझाते हुये कहा।
अच्छा, देखूँ कैसे हैं ? पर तू अभी दूर ही रहना। मम्मी ने देवम को समझाते हुये कहा।
नही मम्मी, डौगी तो पूँछ हिला कर बुला रही है, डरने की कोई बात नहीं है। देवम ने मम्मी को समझाया।
और प्रायः ऐसा देखा गया है जब कोई भी कुतिया बच्चों को जन्म देती है तो उस समय वह किसी को भी अपने पिल्लों के पास फटकने नहीं देती है। ऐसे समय पर उसका स्वभाव बहुत आक्रामक तक हो जाता है। पर डौगी ने देवम के साथ ऐसा कुछ भी नही किया। ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं। शायद दैवम और डौगी की कैमिस्ट्री कुछ ऐसी ही हो।
और चार-चार पिल्लों को देख कर तो देवम की खुशी का तो ठिकाना ही न रहा। दो तो एकदम सफेद, एक काला और एक कैमिल सिल्कन कलर, सब के सब देवम के फेवरेट कलर। गोल-मटोल, बटन जैसी आँखें, चारों के चारों देवम को बेहद पसन्द। देवम ने सभी को छू-छू कर अपने ढंग से ढेर सारा प्यार भी किया और डौगी बच्चों के इस दिव्य-मिलन को एक टक निहारती रही और दिव्य-आनन्द की अनुभूति करती रही।
बच्चे तो आखिर बच्चे ही होते हैं, फिर चाहे वो इन्सान के हों, गीदड़ के हों या फिर शेर के ही क्यों न हों। वे तो प्यार की परिभाषा होते हैं। बच्चे हिन्दू और मुसलमान नहीं होते हैं। जन्म से तो हर बच्चा भगवान ही होता है। विष घोलने वाले तो हम जैसे शरीफ़ लोग ही होते हैं। खैर, जाने भी दो। सब चलता है, इस स्वार्थी संसार में।
देवम ने बड़ी उत्सुकता से मम्मी से पूछा, मम्मी, डौगी क्या खाना खायेगी ?  इसने तो कल रात से ही कुछ नही खाया है, बेचारी बहुत भूखी होगी। जल्दी से कुछ बना कर ले आओ।
मम्मी ने कहा, डौगी को तो मैं अभी लपसी बना कर लाती हूँ और पिल्ले तो अपनी माँ का दूध ही पियेंगे।
मम्मी, इनके रहने को घर भी तो बनाना होगा ? देवम ने मम्मी से पूछा।
हाँ, छायादार जगह पर बना लो। मम्मी ने कहा।
 “ ठीक है। मम्मी की स्वीकृति मिलते ही देवम का काम चालू हो गया।
देवम ने अपने दोस्त विजय को बुला कर सब दोस्तों को बुलवाया और आनन-फानन में ही अजय, शुभम, सरल, पिन्की, शर्लिन, शीला, कल्पा और शालिनी वहाँ आ पहुँचे।
बच्चा-पलटन क्या नहीं कर सकती, यह कहना बड़ा मुश्किल है पर ये पलटन जो धारे तो सब कुछ कर सकती है, यह कहना बहुत आसान होता है। पेड़ के नीचे छायादार सुरक्षित जगह का चुनाव किया गया और देखते ही देखते बाहर पड़ी ईंटें इकठ्ठी कर घर बनाना शुरू हो गया।
आदमी को घर बनाने में जिन्दगी निकल जाती है और बच्चों ने तो डौगी के घर को घण्टे भर में ही बना कर तैयार कर दिया। रात को अंधेरा न रहे इसके लिये शीला ने अपने बड़े भैया को बुला कर बल्व लगवा दिया। पानी के लिये एक बर्तन लाया गया और चार बर्तन दूध के लिये।
पिन्की ने तो डौगी का घर की नेम प्लेट भी गत्ते पर बना कर तैयार कर दी। जिसे घर के बीचों-बीच लटका दिया गया। ताकि सभी को पता चल सके कि ये डौगी का घर है और कोई दूसरा कुत्ता यहाँ आ कर न रहने लगे। किसी ने कहा कुत्तों को कोई हिन्दी थोड़े ना आती है।
पर पिन्की को क्या मालूम, ये अबोले भोले-भण्डारी, कभी भी किसी के घर पर कब्जा नहीं करते हैं और ना ही ये कभी घर में रहते हैं। अवैध कब्जा तो पढ़े-लिखे, होशियार ज़ालिम इन्सान ही करते हैं।
ये तो घर की रक्षा करते हैं। इनका स्थान तो घर के बाहर गेट पर होता है। इनका तो तन, मन और धन, सब कुछ या यों कहो कि सारा जीवन ही अपने स्वामी के लिये समर्पित होता है। और समर्पित व्यक्ति का अपना कुछ भी नहीं होता। हाँ, कुछ भी नहीं।
और अब बाल-संसद में नामकरण संस्कार पर विचार शुरू हुआ। किस का क्या नाम रखा जाय, इस पर तरह-तरह के नाम सुझाये जा रहे थे और यह भी निर्णय लिया गया कि एक बार नाम रखने के बाद फिर बदला नहीं जायेगा।
चारों में से तीन पिल्ले और एक  पिलिया थी। पिलिया देखने में बड़ी ही प्यारी सिल्कन कैमल कलर की, शर्लिन को बहुत अच्छी लगी। उसने उसका नाम सिल्की ही रख दिया। शालिनी, शीला, कल्पा और सरल को यह नाम बेहद पसन्द आया।
इसके बाद दो पिल्ले जो एकदम व्हाइट थे और देवम की पसन्द भी थे, उन दोनों का नाम देवम ने रौकी और जौकी रखा। कल्पा और शीला को भी यह नाम बेहद पसन्द आया। और बिलकुल ब्लैक कलर का पिल्ला, जो देखने में एकदम दबंग लग रहा था, उसका नाम सर्वसम्मति से सर्किट रखा गया।
सभी को चारों नाम अच्छे लगे, आखिरकार निर्णय भी तो बाल-संसद का था। सभी के नाम सुन कर मम्मी को बहुत अच्छा लगा और बालकों की बुद्धिमत्ता पर गर्व भी हुआ।
उधर मम्मी लपसी बना कर ले आईं, पहले तो डौगी का गृह-प्रवेश कराया गया फिर मम्मी ने लपसी को डौगी के सामने रख दिया। डौगी ने पहले तो सूँघा, फिर थोड़ा खाया और बाकी छोड़ दिया।
शाम को देवम के बर्थ-डे की पार्टी होनी थी। देवम की इच्छा साइकिल की थी, वह भी आ चुकी थी। खाने की पूरी व्यवस्था मम्मी कर चुकीं थीं। हॉल को बड़े अच्छे ढंग से सजाया गया।
हर बार देवम हॉल को सजाने में सहयोग किया करता था पर इस बार देवम का मन अपने बर्थ-डे में कम और डौगी की चिन्ता में ज्यादा था। और ऐसा होना स्वाभाविक भी था।
देवम का बाल-मन बार-बार यही विचार कर रहा था कि आज के दिन मेरा जन्म हुआ था अतः मेरा जन्म दिवस मनाया जा रहा है।
पर  रौकी, जौकी, सिल्की और सर्किट का भी तो जन्म आज ही हुआ है तो क्यों न इन सबका भी बर्थ-डे मनाया जाय और मिठाइयाँ बाँटी जाय। बड़ा अच्छा रहेगा। और खूब मजा भी आयेगा।
देवम ने मम्मी से पूछा, मम्मी, आज अपने घर में बर्थ-डे मनाया जा रहा है, क्यूँ न डौगी के घर भी अपने ही बर्थ-डे मनायें ?
देवम की बात सुन कर मम्मी को पहले तो बहुत हँसी आई, पर बात बहुत अच्छी लगी और उन्होंने हाँ, ठीक है। कहकर स्वीकृति दे दी।
देवम का मन कितना खुश हुआ, यह अन्दाज लगाना बेहद मुश्किल था। पर देवम की मम्मी ने भी देवम को इतना खुश आज तक कभी भी नहीं देखा था।
डौगी के घर को सजाने का काम शीला, शर्लिन, कल्पा और सरल को सौंपा गया। अजय और विजय छोटे-छोटे चार केक और चार मोमबत्ती बाजार से ले कर आये।
एक टेबल की भी व्यवस्था की गई, जिस पर कि सामान और केक आदि रखा जा सके। बाल-गोपालों ने सभी तैयारी पूरी कर लीं। बच्चे सभी कार्य जबावदारी के साथ करने में समर्थ होते हैं इसमें कोई संशय ही नहीं है। वे तो काम पाने के लिये अकुलाते रहते हैं, व्याकुल रहते हैं।
शाम होते-होते तो देवम के घर मेहमानों का आना शुरू हो गया। देवम के स्कूल के दोस्त, सोसायटी के दोस्त, पापा के ऑफिस के साथी और मम्मी के कॉलेज के स्टाफ के सभी साथी।
देवम और देवम के पापा-मम्मी ने सभी का स्वागत एवं अभिवादन किया। देवम के पापा ने यह निश्चय किया कि पहले डौगी के घर चल कर रौकी, जौकी, सिल्की और सर्किट का बर्थ-डे मनाया जाय और बाद में देवम का। देवम भी यही चाहता था।
सभी आगन्तुक मेहमान, बाल-गोपाल आदि गार्डन में पहुँच गये जहाँ कि डौगी का घर बनाया गया था। जिस केक पर सिल्की लिखा था उस केक को शर्लिन के द्वारा काटा गया। रौकी और जौकी के केक को देवम ने काटा और सर्किट के केक को सभी ने मिल कर काटा।
हैपी बर्थ-डे टु यू ऑल के उदधोष से वातावरण गूँज उठा। मिठाइयाँ बाँटी गई। चारों नवजात शिशुओं को आशीर्वाद दिये गये। सभी के मन में खुशी और हास्य का मिश्रण था।
और डौगी तो ये सब मूक दर्शक बनी देखती रही, दुख-सुख की सीमा से परे। क्योंकि उसने तो अपने समाज में ऐसा कुछ भी कभी देखा ही नहीं था। उसके समाज में तो बस वफादारी, त्याग-बलिदान और समर्पण ही होता है, अपने स्वामी के लिये, और कुछ भी तो नहीं।
 देवम सोच रहा था कि रौकी, जौकी, सिल्की और सर्किट, को उनके जन्म-दिवस पर, ऐसी कौन सी वस्तु है जो दी जाय और उनके काम आ सके। पर प्यार के अलावा कुछ भी तो नहीं था उनके काम का।
ये अबोले भोले-भण्डारी भी तो देवम की आँखों में केवल प्यार ही ढूँढ रहे थे। और सच में, प्यार ही तो थी उनकी सबसे प्यारी बर्थ-डे गिफ्ट और देवम की आँखों में तो प्यार का सागर था उनके लिये।
देवम के पास खड़ी डौगी पूछ हिला कर, जैसे कह रही हो, हैप्पी बर्थ-डे टु यू भैया, देवम। और अबोली डौगी जैसे कह रही हो, रौकी, जौकी, सिल्की और सर्किट को मेरी ओर से बर्थ-डे गिफ्ट समझ कर स्वीकार करना, देवम भैया। ये मेरे कलेजे के टुकड़े हैं, इन्हें सम्हाल कर रखना, बड़े प्यार से रखना, देवम भैया। इनकी वफादारी की गारन्टी मैं लेती हूँ। ये मेरे दूध को नहीं लजाएँगे।
कैसी विडम्वना है, ये अनपढ़, निरक्षर पशु जिन्हें वफादारी शब्द का अर्थ भी नहीं मालूम होगा, वे कितनी तन्मयता और ईमानदारी के साथ मन, वचन और कर्म से निभाते हैं इस शब्द की गरिमा को।
कुत्ते कभी भी गद्दार नहीं होते हैं। वे तो बस, वफादार ही होते हैं। और इसीलिये तो कुत्ते की मौत मारे जाते हैं ये असभ्य। शायद इन्हें आदमी की तरह मर-मर कर जीना भी तो नहीं आता।
देवम को पापा ने साइकिल, मम्मी ने वीडियो गेम्स, दादा जी ने सुन्दर पेन दिया। और इतना ही नहीं, उसके स्कूल के मित्रों ने, सोसायटी के मित्रों ने और तो और पापा-मम्मी के स्टाफ सभी की ओर से ढेरों गिफ्ट मिलीं थी देवम को। गिफ्टों का अम्बार था देवम के घर पर।
पर सारी की सारी गिफ्ट एक ओर, और डौगी की गिफ्ट एक ओर, कभी न भूलने वाली प्यारी गिफ्ट। डौगी की गिफ्ट, बेमिसाल गिफ्ट, बेशकीमती गिफ्ट। दूसरी गिफ्टों को तो देवम ने छुआ तक न था और डौगी की गिफ्ट को हाथ से छोड़ने की इच्छा न थी देवम की। उसकी आँखों में तो केवल डौगी की गिफ्ट ही थी। रौकी, जौकी, सिल्की और सर्किट, बस और कुछ नहीं।
कुछ ही देर में देवम का बर्थ-डे सेलीब्रेशन शुरू हुआ। केक काटा गया। देवम ने पापा, मम्मी और दादा जी के चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त किया। देर रात तक गाना, डान्स और खाने का प्रोग्राम चलता रहा।
जन्म-दिवस पर देवम ने एक संकल्प भी लिया कि वह हर रोज़ एक दुखी व्यक्ति को सुख पहुँचाने का प्रयास करेगा और ऐसा कोई भी काम नहीं करेगा, जिससे किसी को दुख पहुँचे या कष्ट हो।
देवम का तन पार्टी में था और मन डौगी के पास। हर दस पन्द्रह मिनट के बाद देवम डौगी की खोज-खबर ले आता था। सर्किट जग रहा था बाकी सब सो गये थे। डौगी भी कभी देवम के घर के गेट पर होती तो कभी अपने बच्चों के पास।
सुबह जब देवम उठा तो उससे पहले ही रौकी, जौकी, सिल्की और सर्किट सभी को डौगी दूध पिला चुकी थी और सब के सब अपने स्वामी और दोस्त देवम का आतुरता से इन्तजार कर रहे थे। अपने स्वामी के बगीचे का अवलोकन कर रहे थे। सर्किट डौगी के घर के पास था और डौगी देवम के घर के गेट पर थी। सबने अपनी-अपनी कमान सम्हाल ली थी। अपनी ड्यूटी पर तैनात थे।
और देवम देख रहा था कि मेरी बर्थ-डे गिफ्ट कहाँ-कहाँ है ? और क्या कर रही है ? डौगी की अमानत।
सच में देवम को सबसे प्यारी लगी अबोली डौगी की
बर्थ-डे गिफ्ट
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...आनन्द विश्वास

Friday, 30 November 2012

चिड़िया फुर्र...


चिड़िया फुर्र...
( यह कहानी मेरे उपन्यास देवम बाल-उपन्यास से ली गई है। जिसे डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित किया गया है।)


 चिड़िया फुर्र...
अभी दो चार दिनों से देवम के घर के बरामदे में चिड़ियों की आवाजाही कुछ ज्यादा ही हो गई थी। चिड़ियाँ तिनके ले कर आती, उन्हें  ऊपर रखतीं और फिर चली जातीं दुबारा, तिनके लेने के लिये।
लगातार ऐसा ही होता, कुछ तिनके नीचे गिर जाते तो फर्श गंदा हो जाता। पर इससे चिड़ियों को क्या ? उनका तो निर्माण का कार्य चल रहा है, नीड़ निर्माण का कार्य। उन्हें गन्दगी से क्या लेना-देना।
नये मेहमान जो आने वाले हैं। और नये मेहमान को रहने के लिये घर भी तो चाहिये न ? आखिर एक छत तो उनको भी चाहिये, रहने के लिये। पक्षी हैं तो क्या हुआ ? उड़ना बात अलग है, चाहे कितना भी ऊँचा उड़ लिया जाय, पर रहने के लिये, आधार तो सबको ही चाहिये।
और फिर इनकी दुनियाँ में तो सब कुछ सेल्फ-सर्विस ही होता है। सब कुछ खुद ही तो करना होता है इन्हें। कोई नौकर नहीं, कोई मालिक नहीं। सब अपने मन के राजा और सब अपने मन के गुलाम।
देवम जब भी बरामदे में आता तो उसे कचरा पड़ा दिखाई देता। ऐसा कई बार हुआ। पर जब उसने ऊपर की ओर देखा तो उसे ख्याल आ गया कि ये तिनके तो चिड़ियाँ बार-बार ला कर ऊपर रख रहीं हैं और वे ही तिनके नीचे गिर जाते हैं। और घर गंदा हो जाता है।
गन्दगी तो देवम को विल्कुल भी रास नहीं आती। कभी काम वाली से तो कभी खुद, साफ-सफाई करते-करवाते देवम हैरान परेशान हो गया।
उसने मम्मी से शिकायत के लहज़े में कहा, “ मम्मी, ये चिड़ियाँ तो घर को कितना गंदा करतीं हैं, देखो ना ? ” 
मम्मी को समझने में देर न लगी। उन्होंने देवम को समझाते हुए कहा, “  बेटा, ये अपना घर बना रहीं हैं और जब घर बनता है तो थोड़ी बहुत गंदगी तो हो ही जाती है। ला मैं साफ कर देती हूँ। कुछ दिनों के बाद देखना छोटे-छोटे बच्चे जब चीं-चीं करके उड़ेंगे तो बड़े प्यारे लगेंगे।
  ऐसा माँ ? ” देवम ने आश्चर्यचकित हो कर पूछा।
 “  हाँ बेटा, छोटे-छोटे मेहमान आयेंगे अपने घर में। मम्मी ने बड़े प्यार से देवम को समझाया।
देवम के मन में आतुरता जागी, छोटी-छोटी चिड़ियाँ के पास कहाँ से, कैसे आ जाते हैं छोटे-छोटे प्यारे बच्चे ? अब तो उसके मन में बस प्रतीक्षा थी कि कब वह प्यारे-प्यारे बच्चों को देख सकेगा ?
अब तो उसे उनके प्रति सहानुभूति हो गई थी । नीचे पड़े हुए तिनकों को पहले तो वह कचरा मान कर बाहर फैंक दिया करता था। पर अब तो सब के सब तिनके उठा कर, जब चिड़िया बाहर गई होती, तो चुपके से टेबल के ऊपर चढ़कर घोंसले के पास रख देता। और इस तरह रखता कि चिड़िया को पता न लगे। गुप्तदान की तरह गुप्त सहयोग।
सहयोग और सहानुभूति की प्रबल इच्छा होती है बालकों में। बस यह सोच कर कि जितनी जल्दी घर बन जायेगा, उतनी ही जल्दी बच्चे भी आ जायेंगे। और कभी-कभी तो वह बाहर से गार्डन में पड़े तिनकों को खुद ही उठा कर ले आता और टेबल पर चढ़ कर घौंसले के पास रख देता।
और जब उन तिनकों को चिड़ियाँ नहीं लेतीं, तो कभी तो बोल कर, तो कभी इशारे से वह कहता, “ ये तिनके भी ले लो न। ये भी तुम्हारे लिये ही हैं। पर दोनों एक दूसरे की भाषा समझें, तब न।
देवम रोज सुबह घोंसले की ओर देखता, और फिर निराश मन से मम्मी से पूछता, “ मम्मी, कितने दिन और लगेंगे बच्चों के आने में ? ”
एक ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर किसी के पास न था और वैसे भी बच्चों के प्रश्नों का उत्तर देना इतना आसान भी तो नहीं होता। हर कोई बीरबल तो होता नहीं है।
देवम को समझाते हुए मम्मी ने कहा, “ बेटा, ये सब तो भगवान की मर्जी है, जब वे चाहेंगे तब तुरन्त भेज देंगे।
 “ पर कब होगी भगवान की मर्जी ? इतने दिन तो हो गये हैं।देवम ने उलाहना देते हुए कहा। जैसे कि वो भगवान की शिकायत कर रहा हो। बच्चों के लिये तो माँ, किसी भगवान से कम नहीं होतीं।
शायद देवम की बात भगवान को सुनने में देर न लगी और दूसरे दिन सुबह-सुबह ही घोंसले से चीं-चीं की आवाज सुनाई दी। घोंसले के अन्दर वातावरण गर्मा गया था। चहल-पहल बढ़ गई थी। शायद देवम की प्रार्थना भगवान ने सुन ली थी। उसकी इच्छा पूरी हो गई थी और चिड़िया ने बच्चों को जन्म दे दिया था।
देवम को जब पता चला तो खुशी के मारे फूला नहीं समाया। दौड़ा-दौड़ा वह मम्मी के पास पहुँचा और खुशी का समाचार सुनाया।
वह बोला, “ मम्मी, घोंसले से चीं-चीं की आवाज आ रही है, सुनो न।
मम्मी ने देवम को समझाया, “ एक दो दिन बाद जब बच्चे बाहर निकलेंगे तब दिखाई देंगे। तब तक तो इन्तजार करना ही होगा। ” 
मम्मी, मैं अभी ऊपर चढ़ कर देख लूँ तो ? ” देवम ने उत्सुकता वश पूछा।
न बेटा, चिड़िया नाराज़ हो जायेगी और घर छोड़ कर कहीं दूसरी जगह चली जायेगी। मम्मी ने देवम को समझाते हुए कहा।
तो फिर क्या करूँ ? मम्मी। देवम का प्रश्न था।
बस एक दो दिन में बच्चे खुद ही बाहर आ जायेंगे। मम्मी ने बाल-मन को समझाते हुए कहा।
ठीक है, मम्मी। जब बाहर आयेंगे तभी देख लूँगा देवम ने अपने मन को समझाते हुये कहा।
एक-एक पल का इन्तज़ार जिसके लिए बेहद मुश्किल हो, दो दिन कैसे बिताये होंगे, ये तो देवम ही जाने। पर आज चिड़िया के बच्चों ने घोंसले से बाहर अपना मुँह निकाला और वो भी तब जब कि चिड़िया दाना लेने बाहर गई हुई थी।
 शायद अधिक देर हो जाने के कारण, बेटों को माँ की चिन्ता हुई होगी या फिर भूख अधिक लगने के कारण उनकी व्याकुलता बढ़ गई हो ?
खैर, कारण जो भी हो, पर देवम की शिशु-दर्शन की तमन्ना आज पूर्ण हो गई। छोटे-छोटे बच्चों को आज उसने जी भर कर देखा। और इसी अन्तराल में चिड़िया भी वहाँ आ पहुँची।
बच्चों का चीं-चीं करके मुँह खोलना और चिड़िया का मुँह में दाना डालना। दिव्य-दृश्य देवम ने निहारा। गद्-गद् हो गया उसका आतुर मन।
छोटे-छोटे बच्चे कभी घोंसले से बाहर की ओर मुँह निकाल कर अपनी माँ का इन्तजार करते और कभी जब माँ दिखाई दे जाती तो चीं-चीं कर के उसे बुलाते। देवम यह सब कुछ देख कर बड़ा खुश होता।
कभी तो थाली में ज्वार का दाना रख कर दूर हट जाता और दूर खड़े हो कर चिड़िया का इन्तजार करता। उसे तो उस क्षण का इन्तजार रहता जब चिड़िया दाना ले कर अपने छोटे-छोटे बच्चों के मुँह में दाना डाले।
इस क्षण की अनुभूति ही देवम को बड़ी अच्छी लगती। और इसी क्षण की प्रतीक्षा में वह घण्टों घोंसले से दूर इन्तजार करता।
छोटे बच्चों का घोंसले के बाहर निकलना, पंखों को फड़फड़ाना और उड़ने का प्रयास करना, अब तो आम बात हो गई थी। पर देवम की आत्मीयता में कोई भी कमी नही आई थी। वह उनका पूरा ख्याल रखता।
कभी-कभी तो वह छोटी थाली में दाना डाल कर, टेबल पर चढ़ कर थाली को ही घोंसले के पास रख देता। और दूर खड़ा हो गतिविधियों का निरीक्षण करता।
एक दिन देवम ने देखा कि एक बिल्ली टेबल पर रखे सामान के ऊपर चढ़ कर घोंसले तक पहुँचने का प्रयास कर रही है। उसे समझते देर न लगी कि बिल्ली तो बच्चों को नुकसान पहुँचा सकती है। उसने बिल्ली को तुरन्त भगाया और मम्मी को बताया।
मम्मी ने पायल की मदद से टेबल पर रखे सामान को वहाँ से हटा कर टेबल को भी उस जगह से हटा कर दूसरी जगह रख दिया। और साथ ही ऐसी व्यवस्था कर दी कि घोंसले के पास तक बिल्ली न पहुँच सके।
अब उसे ख्याल आ गया कि बिल्ली कभी भी चिड़िया के बच्चों को नुकसान पहुँचा सकती है और उनकी रक्षा करना उसका पहला कर्तव्य है। उसने निश्चय किया कि वह अपना अधिक से अधिक समय बरामदे में ही बिताएगा।
अपने पढ़ने की टेबल-कुर्सी भी उसने बरामदे में ही रख ली। और तो और डौगी को भी पिलर से बाँध दिया ताकि बिल्ली घोंसले के आसपास भी न फटक सके। अब तो उसकी पढ़ाई भी बरामदे में ही होती।
शायद राजा दिलीप ने इतनी सेवा नन्दिनी की नहीं की होगी, जितनी सेवा देवम ने चिड़िया और उनके बच्चों की, की। राजा दिलीप का तो स्वार्थ था। पर देवम का क्या स्वार्थ, उसे तो बस सेवा करने में अच्छा लगता है। बच्चों का प्रेम तो निश्छल होता हैं, उनका प्रेम तो निःस्वार्थ भावना से भरा होता है। छल और कपट से परे, भगवान का वास होता है उनके पावन मन-मन्दिर में।
और इस तरह एक सप्ताह ही बीता होगा कि एक दिन देवम ने देखा कि घोंसले में न तो चिड़िया थी और ना ही बच्चे। चिड़िया-फुर्र और घोंसला खाली।
एक दिन और इन्तजार किया, शायद रास्ता भूल गये हों। पर वे नहीं आये तो नहीं ही आये। चिड़िया और बच्चे उड़ कर जा चुके थे।
बाल-मन उदास हो गया। प्रेम की डोर ही कुछ ऐसी ही होती है। जब टूटती है तो दुख तो होता ही है।
उसने मम्मी से बड़े ही उदास मन से कहा, मम्मी, चिड़िया तो बच्चों के साथ कहीं उड़ गई। अब घोंसला तो खाली पड़ा है।
अच्छा ! चिड़िया फुर्र हो गई ? चलो, अच्छा हुआ और दूसरी आ जायेगी। मम्मी ने जानबूझ कर वातावरण को हल्का करते हुए कहा।
 “ नहीं मम्मी, मुझे चिड़िया के बच्चे अच्छे लगते थे। देवम ने दुखी मन से कहा।
पर उनको जहाँ अच्छा लगेगा, वहीं तो वे रहेंगे। मम्मी ने देवम को समझाया।
मैं तो उनका कितना ध्यान रखता था फिर भी चले गये। देवम ने शिकायत भरे लहज़े में कहा और कहते-कहते आँसू छलक पड़े।
कैसे समझाये मम्मी, जिन्दगी के इस गूढ रहस्य को।  बच्चे प्यारे होते हैं, वे निश्छल और निःस्वार्थ प्रेम करते हैं। और प्रेम ही तो मोह का मूल कारण होता है। बन्धन में बाँध लेता है भोले मन को।
जो आया है उसे एक न एक दिन तो जाना ही होता है। बालक को समझाना कितना मुश्किल होता है, ये तो देवम की मम्मी ही जाने। माँ से ज्यादा अच्छा और कौन समझा सकता है ? और समझ सकता है अपने बालक को ?
पर यह सत्य है एक न एक दिन तो हम सबको ही फुर्र हो कर कहीं उड़ जाना है और घोंसले को तो यहीं का यहीं रह जाना है। फिर मोह कैसा ?  पर फिर भी, मोह तो होता ही है। आँखें तो भर ही आती हैं।
मम्मी ने देवम को समझाते हुए कहा, “  बेटा, जब तेरे पापा छोटे थे तो पापा की मम्मी, पापा को दूध पिलाती थी, खाना खिलाती थी और गाँव में रहते थे।
ऐं मम्मी ! ”  देवम को आश्चर्य भी हुआ और हँसी भी आई।
हाँ और सुन, फिर पापा बड़े हो गये, उनकी नौकरी यहाँ शहर में लगी, तो फुर्र होकर गाँव से शहर आ गये। ऐसा कहते हुए मम्मी ने एलबम में से अपनी बचपन की एक फोटो दिखाई।
ये तो मम्मी फ्रॉक पहने हुए कोई छोटी सी लड़की  बैठी है ।   देवम ने फोटो देख कर कहा।
 “ पहचान, ठीक से पहचान। ये तो मैं हूँ मम्मी ने देवम की जिज्ञासा बढ़ाई।
पहले ऐसी थीं मम्मी आप ? ” देख कर देवम को हँसी आ गई।
हाँ, पहले ऐसी थी मैं, फिर बड़ी हो गई, शादी हुई और फिर फुर्र होकर मैं तेरे पापा के पास आ गई। मम्मी ने देवम को समझाया।
पहले तो देवम हँसा फिर बोला,   फिर तो मम्मी, मैं भी बड़ा हो कर पापा जैसा हो जाऊँगा ? ”
हाँ बेटा, अभी तू पढ़ेगा, फिर जहाँ तेरी नौकरी लगेगी वहीं तू भी फुर्र होकर चला जायेगा। तेरी भी सुन्दर- सी बहू फुर्र हो कर तेरे पास आ जायेगी। मम्मी ने देवम को गुदगुदाया।
अच्छा मम्मी, मैं अभी फुर्र हो कर दूसरे कमरे में हो कर आता हूँ और आप मेरे लिये किचिन में से फुर्र होकर ठंडा-ठंडा पानी ले आओ। मुझे बड़ी जोर से प्यास लगी है देवम ने कहा।
और जब एक प्यास बुझ जाती है तो दूसरी प्यास लगा ही करती है, ऐसा प्रकृति का नियम ही है। शायद देवम की समझ में भी कुछ आ गया होगा।
वह समझ गया था कि भगवान ने पक्षियों को उड़ने के लिये पंख दिये हैं तो वे उड़ेंगे ही। स्वच्छंद असीम आकाश में। पक्षी तो आकाश की शोभा हैं न कि बन्द पिंजरों की।
उधर देवम के पापा ने यह सोच कर कि देवम का मन लगा रहेगा और चिड़िया के बच्चों से मन हट जायेगा, बाजार से दो तोते पिंजरों के साथ मँगवा दिये। और जहाँ घोंसला था उसी के नीचे दोनों पिंजरे टँगवा दिये। खाना और पानी की भी पूरी व्यवस्था भी करवा दी।
देवम ने तोतों को देखा तो आश्चर्य हुआ। पर उसे अच्छा नहीं लगा।
उसने पापा से कहा, पापा, इन तोतों को उड़ा दें तो कितना अच्छा रहेगा ? आकाश में उड़ते हुये ये कितने सुन्दर लगेंगे ? ”
हाँ, पर तुम जैसा उचित समझो ? ” पापा ने कहा। चाहते तो पापा भी यही थे। पर कभी-कभी सन्तान की खुशी के लिये माता-पिता को वह काम भी करना पड़ता है जिसे वे नहीं चाहते हैं। पर उनका प्रयास बच्चों को सही दिशा दिखाने  का अवश्य ही रहता है।
देवम ने दोनों तोतों को खट्टी अमियाँ खिलाईं, पानी पिलाया और फिर पिंजरे के दरवाजे को खोल कर हँसते हुये कहा, तोते फुर्र..... तोते फुर्र...... तोते फुर्र.....।
और देखते ही देखते दोनों तोते पंख फड़फड़ाते हुए असीम आकाश में ओझल हो गए और शायद देवम का मन भी असीम आकाश सा विशाल हो गया था।
 और मम्मी खड़ी-खड़ी देवम की प्रसन्नता को निहार रहीं थीं।
फिर मम्मी को देख कर, हँसते हुये देवम ने मम्मी से कहा,  मम्मी, चिड़िया फुर्र...  तोते फुर्र...  फुर्र... फुर्र...
देवम ने दोनों पिंजरों को बड़ी बेरहमी से तोड़ डाला ताकि कोई दूसरा तोता इन पिंजरों में, कोई बन्द न कर सके।
और घोंसले को वहीं रखा रहने दिया ताकि कोई दूसरी चिड़िया इसमें आ कर रह सके।
पर भोले देवम को क्या मालूम कि इनके समाज में, ये लोग तो अपना घर खुद ही बनाते हैं। ये लोग किसी दूसरे के घर में नहीं रहते हैं। और तो और इनके यहाँ तो सब कुछ सैल्फ-सर्विस ही होता है।
देवम क्या जाने कि जब ये प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं तो ये नश्वर शरीर किसी काम का नहीं रहता और ना ही इस नश्वर घोंसले में कोई प्राण, पुनः प्रवेश करता है। प्राण को परमात्मा से मिलने के लिए घोंसले से तो बाहर निकलना ही पड़ता है। ये चिड़िया फुर्र होकर ही तो अनन्त आकाश में विलीन हो जाती है। एक जगह विरह होता है तो दूसरी जगह मिलन भी तो होता है।
इस जरा सी बात को देवम क्या, हम भी नहीं समझ पाते हैं और चिड़िया के फुर्र होने पर वरबस आँखों से सागर छलक जाते हैं। गंगा-जमना बह जातीं हैं। मन उदास हो जाता है।
यही तो संसार का नियम है।
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...आनन्द विश्वास