Sunday, 16 October 2011

ये सोना, ये चाँदी

 ये सोना, ये चाँदी


ये   सोना,   ये   चाँदीये    हीरे,  ये    मोती,
ये   किस   काम   के    हैं,    नगीना   नहीं   हैं।  
चाहते  हैं  जो  धन  को, 
कोसते  है  जो  मन  को।
सच   कहूँ जिन्दगी   उनकोजीना  नहीं  है,
ये   सोना,   ये   चाँदीये   हीरे,   ये    मोती।

कौन   क्या   है   न   जानोकिसी  को   कभी,
बनो   खुद   ही    ऐसे ,   कि     जानें     सभी।
काम      इतना       करो 
घन   की    उपमा   बनो।
फिर   बहे     जो   पसीना,   पसीना    नहीं   है,
ये   सोना,   ये   चाँदीये    हीरे,   ये    मोती।
 
हार    जाओ      भले,     हार     मानो     नहीं,
तन   से   हारो   भलेमन    से   हारो     नहीं। 
होड़    खुद     से   करो,   
कल   से   बेहतर   बनो।
नेक    इंसा   से    बेहतरकोई    भी   नहीं   हैं.
ये   सोना,   ये   चाँदीये    हीरे,   ये     मोती।  

अमर   प्यार   है,   क्यों   मरे    जा    रहे    हो,
बनाने    को    हस्ती,    मिटे     जा    रहे   हो।
गुलाबी  सी  बोतल  में, 
देख   तुम  जो   रहे हो।
सामने     आयना    है,     हसीना    नहीं    है,
ये   सोना,  ये   चाँदीये   हीरे,   ये     मोती।
 
                                   ...
आनन्द विश्वास 

Thursday, 13 October 2011

जिन्दगी सँवार लो

दीप   लौ   उबार  लो, शीत  की  वयार  से,
जिन्दगी  सँवार  लो,  प्रीति  की  फुहार  से।

साँस   भी   घुटी-घुटी,
आस  भी  छुटी-छुटी।
प्यास  प्रीति की लिये,
रात   भी   लुटी-लुटी।
रात  को   सँवार  लो,  चन्द्र   के  दुलार  से,
जिन्दगी  सँवार  लो,  प्रीति  की  फुहार  से।

दीप  के   नयन  सजल,
सूर्य   हो   गया  अचल।
तम सघन को देख-देख,
रात   गा   रही  गज़ल।
रात   को   बुहार  दो,  भोर   के  उजार  से,
जिन्दगी  सँवार  लो,  प्रीति  की  फुहार  से।

गुलाब   अंग   तंग  हैं,
कंटकों   के   संग   हैं।
क्या    यही  स्वतंत्रता,
कैद   क्यों  विहंग  हैं।
बंधनों  को  काट  दो, नीति  की  दुधार  से,
जिन्दगी  सँवार  लो,  प्रीति  की  फुहार  से।

राम-राज    रो    उठा,
प्रीति-साज   सो  उठा।
स्वार्थ-द्वेष-राग     का,
समाज आज  हो उठा।
समाज  को  उबार  लो, द्वेष  के  विकार  से,
जिन्दगी  सँवार  लो,  प्रीति  की  फुहार  से।
-आनन्द विश्वास


Tuesday, 11 October 2011

कुछ मुक्तक और ......


कुछ मुक्तक और...

उम्र भर तो  गला, और  कितना गलूँ,
उम्र भर  तो घुला, और कितना  घुलूँ।
पूछता  है  जनाज़ा, चिता  पर  पहुँच,
उम्र भर तो  जला, और  कितना जलूँ। 

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विश्वास  पर  विश्वास  देता जा रहा हूँ,
हर  नयन  की  पीर  लेता  जा रहा हूँ।
साँस  की  पतवार  का ले  कर सहारा,
जिन्दगी  की  नाव  खेता  जा  रहा हूँ। 

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ह्रदय की हर कली सूखी, कि पांखों में   नही मकरंद बाकी है,
ह्रदय की लाश बाकी है, कि सांसों  में  नहीं अब गंध बाकी है।
ह्रदय तो था तुम्हारा ही, ये सांसें भी तुम्हारे नाम  कर दीं थी,
तुम्हारे प्यार  की सौगंध, कि प्राणों  में नहीं  सौगंध  बाकी है।

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...आनन्द विश्वास.