देवम के घर से कुछ ही दूरी पर स्थित
है सन्त श्री शिवानन्द जी का आश्रम। दिव्य अलौकिक शक्ति का धाम। शान्त, सुन्दर और
रमणीय स्थल। जहाँ ध्यान, योग और ज्ञान की अविरल गंगा बहती रहती है। दिन-रात यहाँ
वेद-मंत्र और ऋचाओं का उद्घोष वातावरण को पावनता प्रदान करता रहता है और नदी का
किनारा जिसकी शोभा को और भी अधिक रमणीय बना देता है।
यहीं पर स्थित है एक बृद्धाश्रम। कुछ
लोगों के लिए यह आवश्यकता है तो कुछ लोगों के लिए मजबूरी, लाचारी और विवशता। खुशी से तो खैर, यहाँ कौन आना पसन्द
करता है?
शायद, विवशता, मजबूरी और लाचारी का
दूसरा नाम ही बृद्धाश्रम है। बुढ़ापे में जब हर तरफ से रास्ते बन्द हो जाते हैं तब
एक ही रास्ता दिखाई देता है बूढ़ी आँखों को, जो जाता है बृद्धाश्रम की ओर।
अक्सर बृद्धाश्रम में वे ही लोग
पहुँचते हैं जो या तो सन्तान के अभाव से त्रस्त होते हैं या फिर वे लोग जो सन्तान
द्वारा त्यक्त होते हैं, जिन्हें सन्तान ने यहाँ आने के लिए मजबूर कर दिया हो। और
दोनों ही परिस्थितियों में ये बृद्ध सहायता और सहानुभूति के पात्र होते हैं।
पैसे से प्यार और सेवा को खरीदा नहीं
जा सकता। आत्मीयता बाजार में बिकने वाली कोई सब्जी नहीं है जिसे जब चाहा, जहाँ
चाहा, जैसे चाहा, पैसा दिया और खरीद लिया। बड़े भाग्यशाली होते हैं वे लोग, जिनके
अपने, अपने होते हैं। अपनापन होता है, आत्मीयता होती है जिनके रोम-रोम में। मन
गद-गद हो जाता है, ऐसे पावन दर्शन से, आँखें भर आतीं हैं।
यहाँ पर रहने वालों के, या तो अपने
होते ही नहीं हैं और यदि होने के नाम पर होते भी हैं तो वे परायों से ज्यादा पराये
होते हैं, तभी तो ये यहाँ पर हैं।
बृद्धाश्रम का वातावरण शान्त और
रमणीय होता है। पूर्ण शान्ति-स्थल, पर रहने वाले अधिकतर लोगों के उद्वेलित मन और
मन में दावानल से भी भयंकर आक्रोश। पर लाचार, तभी तो विवश होते हैं बेचारे।
देवम के दादा जी अक्सर यहाँ घूमने
आया करते हैं और हम-उम्र लोगों के साथ उनकी अक्सर चर्चा भी हुआ करती है। चर्चा के
विषय समय के अनुसार बदलते रहते हैं। कभी राजनैतिक, कभी सामाजिक, कभी वेद-शास्त्रों
के तो कभी व्यक्तिगत जीवन के।
आज दादा जी के साथ देवम को आश्रम में
आने का अवसर मिला। दादा जी तो किसी काम से ऑफिस में चले गये, देवम ने सोचा चलो
देखें, कैसे रहते हैं ये लोग?
एक कमरे के सामने से देवम गुजर ही
रहा था, कमरे का दरवाजा आधा खुला हुआ था। उसकी नजर कमरे में रोती हुई बुढ़िया पर
पड़ी। देवम के पाँव रुक गये, उसे लगा कि कुछ बात तो होगी ही। कोई यूँ ही तो रोता
नहीं है।
पाँव रुके और जीभ बोल उठी-“दादी जी, क्या
मैं अन्दर आ सकता हूँ?”
देवम के निवेदन को बुढ़िया नकार न
सकी और जैसे कोई चोरी पकड़ गई हो।
उसने अपने आँचल से आँसू पोंछते हुये
देवम से कहा-“हाँ हाँ, बेटा क्यों नहीं? अरे आओ।”
“दादी जी, आप तो रो रही हो, क्यों?” देवम ने पूछा।
देवम से ऐसे प्रश्न की अपेक्षा न थी
बुढ़िया को, वह सकपका गई और बोली-“नहीं तो, कुछ भी नहीं, ऐसा कुछ भी तो नहीं।”
“नहीं, दादी कुछ बात तो है जो आप छुपा रही हो, पर आपके आँसू तो
बोल रहे हैं।” देवम का मन बाल-हट कर ही बैठा।
बूढ़ी दादी आँसू के रहस्य को देवम से
छुपा न सकी और बोल ही पड़ी-“नहीं बेटा, बस यूँ ही, आज उनकी याद आ गई। यदि आज वे होते तो
मैं बरबाद न हुई होती।”
“क्या हुआ दादी जी, बताओ न। जब आपने बेटा कहा है तो आपको सब
कुछ बताना ही होगा।” देवम ने आग्रह-पूर्वक कहा।
“नही
बेटा, मैं क्या बताऊँ तुझेअभी तो तू बालक है। अभी तू क्या समझेगा?” बड़े संकोच के
साथ बुढ़िया ने देवम को समझाते हुए कहा।
“नहीं दादी, मैं बालक हूँ इसीलिए तो मैं आपकी बात को समझ सकता
हूँ। ये बड़े लोग नहीं समझेंगे आपकी बात को।” देवम ने दादी को
समझाते हुए कहा।
देवम की पूछने की हठ और बुढ़िया की न
बताने की हठ। दौनों की हठों में खींचतान शुरू हो गई। आखिर बच्चे तो जिद्दी होते ही
हैं और बुढ़िया को हारना ही पड़ा।
बुढ़िया ने बताया कि कल्पेश के पापा
फौज में बड़े अफसर थे। कारगिल की लड़ाई में उन्होंने कई टैंक तोड़े थे और अपने
साथियों को बचाते हुए वे शहीद हो गये, पर साथियों को बचाने में सफल हो गये थे।
राष्ट्रपति के द्वारा उन्हें शौर्य-पुरस्कार भी मिला था। पर अब सब कुछ बेकार है,
किस काम का ऐसा पुरस्कार?
कल्पेश ने उन्हीं दिनों में पेन्शन
आदि के कागजों, कोर्ट आदि के कागजों पर मुझसे अँगूठा लगवा लिया और बोला ये सब
कागजी कार्यवाही तो करनी ही पड़ेगी। मैं ना तो कुछ जानती थी और ना ही पढ़ी-लिखी
थी। जैसा उसने कहा वैसा कर दिया।
बाद में मुझे पता चला कि उसने मकान
को, जो उसके पापा के नाम से था, अपने नाम से करा लिया। और कुछ दिन बाद उसकी बहू ने
मुझसे झगड़ा किया और मार पीट कर घर से
बाहर निकाल दिया। बेटा कुछ न बोला।
यह सोच कर कि चलो मैं गाँव में जा कर
रह लूँगी, वहाँ गई तो पता चला कि गाँव की जमीन और मकान सब कुछ इसने बेच दिया है।
मकान में कोई दूसरा आदमी रहता था। मैं लाचार थी।
मैंने थाने में शिकायत भी की। पर कुछ
भी न हुआ। और अब मजबूरी में मैं यहाँ रह रही हूँ। जो पेन्शन मिलती है उसमें से कुछ
यहाँ देना पड़ता है, बाकी मैं अपने पास रख लेती हूँ।
और आज ही के दिन वे शहीद हुए थे। सो
आँखें नम हो गईं। बस, और कुछ भी तो नहीं।
देवम की आँखें भी नम हुए बगैर न रह
सकीं। वह सोच में पड़ गया, ऐसे भी बेटे होते हैं? काश! ऐसे बेटे को तो
पैदा होने से पहले ही मर जाना चाहिये था। कम से कम बेटे का नाम तो कलंकित न हुआ
होता। किसी माँ का बेटे से विश्वास तो न उठता। कोई माँ अपने बेटे को दगाबाज तो न
कह पाती।
देवम ने दादी को धैर्य बंधाया और
आश्वासन दिया कि वह शीघ्र ही कोई न कोई रास्ता जरूर निकालेगा और दादी को न्याय
दिला कर ही रहेगा।
ढ़ेरों सवालों को अपने मन समेटे हुए
देवम, दादा जी के साथ घर वापस आ गया।
देवम ने घर आ कर सब कुछ मम्मी को
बताया तो देवम की मम्मी की आँखें भी नम हो गईं और सोचने को विवश कर दिया।
कैसे-कैसे लोग रहते हैं, इस धरती पर? अपनी औलाद ही अपनी दुश्मन? आदमी भरोसा करे
तो आखिर किस पर?
मम्मी ने देवम से कहा-“तेरे पापा के
दोस्त भावेश पटेल हाई कोर्ट में वकील हैं। उनसे राय ली जाय तो वे कुछ रास्ता जरूर
निकाल सकेंगे।”
देवम की नम आँखों में चमक सी आ गई,
उसने शाम को पापा के घर आने पर पटेल अंकल को फोन करवाया। पटेल अंकल ने दूसरे दिन
कोर्ट से छूट कर शाम के समय आने को कहा।
दूसरे दिन शाम को पटेल अंकल के आने
पर देवम ने सारी घटना विस्तार से बताई, तब तक मम्मी चाय-नाश्ता ले कर आ गईं।
थोड़ी देर विचार करने के बाद पटेल
अंकल ने देवम से कहा-“देवम, मैं उनसे मिलना चाहता हूँ, ताकि पूरी बात को समझ सकूँ।
उनसे कब मिला जा सकेगा?”
“हाँ, दादी जी से तो कभी भी मिला जा सकता है।” देवम ने उत्साह
पूर्वक कहा।
और कुछ ही समय के बाद एडवोकेट भावेश
पटेल और देवम, बृद्धाश्रम में बुढ़िया के पास में थे। बुढ़िया ने शुरू से सभी घटना
को विस्तार पूर्वक पटेल को बताया और जो भी प्रश्न भावेश पटेल ने पूछे उनका उत्तर
दिया।
पटेल ने बुढ़िया से पूछा-“माँ जी, एक बात
पूछूँ?”
“हाँ, पूछो बेटा।” बुढ़िया ने कहा।
“माँ जी, मुकदमा लड़ना पड़ेगा, उसके लिए क्या आप तैयार हो?” पटेल ने बड़ी
मक्कमता के साथ पूछा।
“नही बेटा, मेरे पास इतना पैसा कहाँ जो मैं मुकदमा लड़ सकूँ।” हताशा भरे स्वर
में बुढ़िया ने कहा।
“नहीं माँ जी, आपसे पैसा कौन माँग रहा है। मुझे आप से एक भी
पैसा नहीं चाहिये और ना ही आपका एक भी पैसा खर्च होगा। मैं तो आपसे इसलिए पूछ रहा
हूँ कि कहीं फिर बेटे को देख कर मन न पसीज जाये? क्योंकि इसमें
उसको जेल भी हो सकती है? फिर बाद में पीछे मुड़ना बड़ा मुश्किल होगा?” पटेल ने बुढ़िया
को गम्भीरता से समझाते हुए कहा।
जेल की बात को सुनते ही बुढ़िया की
आँखों में चमक सी आ गई, मन में एक टीस सी उभर आई और उभर आई प्रतिशोध की भावना।
दया और क्षमा जैसा तो कुछ भी नहीं
दिखाई दे रहा था, उसकी आँखों में।
उसने पल भर भी विलम्ब किये बिना “हाँ” कहकर अपनी
स्वीकृति की मुहर लगा दी।
“सोच लो, माँ जी।” भावेश पटेल ने कहा।
“बेटा अगर तुम इतना कर दो तो तुम्हारा एक बहुत बड़ा एहसान होगा
मुझ पर। मैं अपने कलंकित बेटे को जिन्दा भी नहीं देखना चाहती।” डबडबाऐ हुए
बूढ़ी आँखों के कलेजे ने चीख-चीखकर पुकारा।
पटेल ने बुढ़िया से कहा-“फिर भी माँ जी,
आप एक बार ठंडे दिल और दिमाग से सोच लें और कल मैं आपसे मिलने आऊँगा। अगर आपका
आदेश होगा तो फिर आगे कदम उठाया जायेगा।”
पटेल और देवम ने विचार करने के लिए
एक दिन का समय देना उचित समझा। माँ की ममता कब पिघल जाये, यह कहना बड़ा मुश्किल
होता है।
“हाँ
बेटा, इसमें सोचना कैसा।सोचते-सोचते तो आँखों का पानी सूख गया, अब बचा ही क्या है?” बुढ़िया के
विचारों की स्थिरता ने सब कुछ बयाँ कर दिया।
“फिर मैं यह फैसला पक्का समझूँ, माँ जी?” भावेश पटेल ने
एक बार फिर से पूछा।
बुढ़िया के दृढ़ निर्णय ने देवम और
एडवोकेट पटेल को आगे कदम बढ़ाने की हरी झंडी दिखा दी।
एडवोकेट भावेश पटेल और देवम ने पहले
तो बुढ़िया के लड़के कल्पेश से मिलकर समस्या-समाधान का प्रस्ताव रखा और यह उचित भी
था। पर अहंकारी कल्पेश को तो अपने पद और कुर्सी का अहंकार जो था। उसने स्पष्ट कह
दिया-“यह हमारा पारिवारिक मामला है, इसमें आप दख़ल न दें तो अच्छा
रहेगा।”
एडवोकेट भावेश पटेल ने कहा-“मैं आपसे उनके
वकील की हैसियत से बात कर रहा हूँ।”
पर कल्पेश ने स्पष्ट कहा-“आप जो उचित
समझें, कर सकते हैं। आप कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं।”
स्पष्ट उत्तर पाकर, एडवोकेट भावेश
पटेल ने कानूनी प्रक्रिया के तहत बुढ़िया के बेटे कल्पेश को मकान खाली करने का
लीगल नोटिस भेज दिया और जिसकी एक-एक कोपी सूचनार्थ सभी सम्बन्धित ऑफिसों को भी भेज
दी।
एक सप्ताह तक कोई जबाब न मिलने पर
एडवोकेट भावेश पटेल ने पुलिस केस कर, सूट फाइल कर दिया। मुकद्दमा चालू हो गया।
पहली तारीख पर ही भावेश पटेल ने
माननीय कोर्ट के समक्ष यह अपील की कि वादी सावित्री देवी, एक शहीद मेज़र स्व.
शिवराज सिंह जी की विधवा है, बृद्ध है, जिसे राष्ट्रपति द्वारा शौर्य-पुरस्कार भी
प्राप्त हुआ है, उसके पास रहने का कोई स्थान नहीं है, जो अभी बृद्धाश्रम में रह
रही है, जिसे प्रतिवादी कल्पेश और उसकी पत्नी शिल्पा ने धक्के मारकर घर से बाहर
निकाल दिया है और उसके घर पर अवैध कब्जा कर लिया है।
माननीय न्यायालय से अपील है कि जब तक
केस का कोई निर्णय न हो तब तक वादी सावित्री देवी को उसके मकान में रहने की अनुमति
दी जाय, तो न्याय संगत होगा। साथ ही कुछ तथ्य और प्रमाण भी प्रस्तुत किये।
वादी और प्रतिवादी दोनों पक्षों की
दलीलें सुनने के बाद माननीय न्यायालय ने निर्णय किया कि जब तक दूसरा निर्णय न आये
तब तक वादी सावित्री देवी को घर का आधा भाग रहने के लिए दिया जाय।
यह प्रक्रिया दो दिनों में पूर्ण हो
जानी चाहिये। आपस में किसी भी प्रकार का वाद-विवाद कानूनी प्रक्रिया में अवरोध
माना जायेगा। और अगली सुनवाई की तारीख दे दी गई।
इतना सब कुछ हो जायेगा, ऐसी आशा
कल्पेश को न थी। वह तो केवल इतना ही सोच रहा था कि माँ है चुप ही रहेगी और फिर
उसके पास मुकद्दमा लड़ने के लिए पैसा है ही कहाँ।
इसीलिए उसने मकान को अपने नाम से
ट्रान्सफर नही कराया था। पर अब तो सब कुछ उल्टा हो चुका था। न्यायालय के
आदेशानुसार, कल्पेश को दो दिनों के अन्दर मकान का आधा भाग खाली कर, मकान की चाबी
कोर्ट में पहुँचानी पड़ी।
दो दिन के बाद एडवोकेट भावेश पटेल और
देवम ने कोर्ट से जाकर चाबी ले ली। बुढ़िया के सभी सामान को बृद्धाश्रम से घर में
पहुँचवा दिया गया।
घर पहुँचकर बुढ़िया को बड़ी
प्रसन्नता हुई। देवम और भावेश के लिए बुढ़िया के मन से जो आशीर्वाद निकल रहे थे,
उनका मूल्यांकन कर पाना बेहद मुश्किल था।
एडवोकेट भावेश पटेल और देवम की यह
पहली सफलता थी और बुढ़िया की आँखों में आशा की पहली किरण। पर लड़ाई तो अभी भी बाकी
थी।
इधर कल्पेश जिस मंत्रालय में काम
करता था उसी विभाग के मंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों में सी.बी.आई.
और आयकर विभाग की ओर से संयुक्त रूप से छापे मारे जा रहे थे। उनके बैंक के खाते
सील कर दिये गये थे। मंत्री जी पर आरोप तय हो चुका था।
मंत्री जी के बैंक के खाते के
ट्रांजक्शन कल्पेश के खाते में भी थे। अतः कल्पेश के बैंक के खाते, लॉकर आदि सील
कर दिये गये और घर पर भी छापे मारे गये। कल्पेश के घर से काफी कैश भी बरामद किया
गया।
आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में
कल्पेश को पुलिस पकड़कर ले गई, बाद में जमानत पर रिहा किया गया था। कल्पेश के
खिलाफ कानूनी कार्यवाही शुरू हो चुकी थी। कोर्ट के आदेशानुसार कल्पेश को पासपोर्ट
कोर्ट में जमा करना पड़ा। अब उसके दुबई भाग जाने के सारे मंसूबे भी धरे के धरे रह
गये।
दूसरे दिन एडवोकेट भावेश पटेल ने
रजिस्ट्रार के ऑफिस में जाकर पता लगाया कि मकान किसके नाम पर है। मकान आज भी मेज़र
शिवराज सिंह के नाम पर ही था।
एडवोकेट भावेश पटेल को आश्चर्य हुआ
और अब तो एडवोकेट भावेश पटेल की सारी समस्या ही हल हो गई थी। और यही थी कल्पेश की
सबसे बड़ी भूल। अब उसका काम बहुत ही आसान हो गया था। उसने रजिस्ट्रार ऑफिस से
दस्तावेज़ की सर्टीफाइड कॉपी निकलवा ली। यह दस्तावेज़ एडवोकेट भावेश पटेल की जीत
के लिए काफी था।
गाँव की जमीन और मकान के विषय में
जानकारी प्राप्त करने के लिए भावेश और देवम दोनों बुढ़िया के गाँव गये।
वहाँ पटवारी से पता चला कि जमीन और
मकान दोनों कल्पेश ने पिछले महिने में ही बेच दिये हैं।
गाँव की जमीन और मकान बिक चुके थे
अतः उसकी चर्चा कोर्ट में अभी करना एडवोकेट भावेश पटेल ने उचित नहीं समझा। केवल
शहर के मकान पर ही जिरह को केन्द्रित रखा।
अगली तारीख पर एडवोकेट भावेश पटेल ने
मकान के दस्तावेज़ की सर्टीफाइड कॉपी माननीय न्यायालय के समक्ष पेश कर दी। कल्पेश
और उसके वकील बचाव में कोई तर्क प्रस्तुत न कर सके।
अतः माननीय न्यायालय ने अपना निर्णय
सावित्री देवी के पक्ष में दे दिया। कोर्ट के आदेशानुसार कल्पेश को मकान खाली करना
पड़ा और कल्पेश को भिन्न-भिन्न धाराओं के अन्तर्गत सजा सुनाई गई।
बेटा गिड़गिड़ाया, फूट-फूट कर रोया,
पर माँ का मन नही पसीजा तो नहीं ही पसीजा। मकान सावित्री देवी का था और आज भी है।
मकान खाली कराकर उसने उसकी साफ सफाई की और मन की भी।
अब बुढ़िया के मन और मकान से उसका
तथाकथित सगे बेटा कल्पेश से दूर, बहुत दूर जा चुका थे। मन और मकान दोनों में उसके
लिए कोई स्थान न रह गया था और देवम के प्रति उसका मन ऋणी था।
देवम और भावेश को देने के लिए
बुढ़िया के पास कुछ भी तो नहीं था पर जो कुछ इन दोनों को दिव्य-आशीष प्राप्त हो
रहा था वह अलौकिक अमृत था जिसे कोई-कोई माँ ही अपने बेटों को दे पाती है।
दो दिन बाद देवम स्कूल गया। रिसेस
हुई, उसके सभी साथी नाश्ता कर रहे थे पर गज़ल सुस्त बैठी थी और वह नाश्ता भी नहीं
कर रही थी।
देवम ने पूछा-“क्यों गज़ल,
क्या बात है आज सुस्त कैसे हो? और नाश्ता भी नहीं कर रही हो। सब ठीक-ठाक है न?”
“कुछ नहीं देवम, आज मैं बहुत परेशान हूँ।” गज़ल ने उदास मन
से कहा।
“क्यों क्या हुआ, बताओ न।” देवम ने फिर से
पूछा।
“आज दादी गाँव से आ गईं हैं और उन्होंने पापा के ऊपर कोर्ट में
केस कर दिया है। अब हमें मकान खाली करके कहीं और रहने के लिए जाना पड़ेगा।” गज़ल ने कहा।
“पर दुःखी होने से समस्या हल थोड़े ना हो जाती है। बोल्ड होकर
हर मुश्किल का सामना करो। अच्छा चलो, अब नाश्ता करो सब ठीक हो जायेगा।” देवम ने गज़ल
को समझाते हुए कहा।
“नहीं आज तो खाने को भी मन नहीं कर रहा है। पता नहीं, कुछ डर
सा लग रहा है।” गज़ल ने दुःखी मन से कहा।
“फिर भी थोड़ा बहुत तो खा ले। कुछ खायेगी नही तो क्या भूखी
रहेगी।” सांत्वना देते हुए छाया और सेजल ने कहा।
देवम के मन में एक शंका जागी कि गज़ल
की दादी ही कहीं बृद्धाश्रम वाली दादी तो नहीं हैं? केस कर दिया,
मकान खाली करना, गाँव से आना, कुछ-कुछ तो मेल खाता है, दोनों में।
“तुम्हारी दादी का नाम क्या है?” अपनी शंका को
दूर करने के लिए देवम ने गज़ल से पूछ ही लिया।
“सावित्री
देवी” गज़ल ने बताया।
शंका में कुछ तो दम दिखाई दिया। “और तुम्हारे
दादा जी का?” देवम ने पूछा।
“शिवराज सिंह, वे फौज में बहुत बडे अफसर थे पर अब वे नहीं रहे।” गज़ल ने बताया।
“पर ये सब तू क्यों पूछ रहा है, देवम?” गज़ल ने
उत्सुकता पूर्वक पूछा।
“हाँ, बताता हूँ, पर पहले तुम अपने पापा का नाम तो बताओ।” देवम को दोनों
में मेल खाता हुआ दिखाई दिया।
“मेरे पापा का नाम कल्पेश है।” गज़ल ने बताया।
“और मम्मी का?” देवम ने पूछा।
“मम्मी का नाम शिल्पा है।” गज़ल ने बताया
तो पर कारण जानने की इच्छा उसमें अभी भी थी।
“पर सच-सच बता न देवम, ये सब तू क्यों पूछ रहा है?” गज़ल ने आग्रह
पूर्वक देवम से पूछा।
“नहीं, कोई बात नहीं, बस वैसे ही पूछ लिया।” देवम ने बात को
टालना ही उचित समझा।
पर देवम का शक सही था इसमें तनिक भी
सन्देह नहीं था। देवम की बृद्धाश्रम वाली बुढ़िया ही गज़ल की दादी थीं।
इतने में घण्टी बज गई, सब अपनी-अपनी
कक्षा में चले गये। पर देवम और गज़ल दोनों के मन में सवाल ही सवाल थे।
गज़ल के मन में था कि देवम ने इतने
सारे सवाल क्यों पूछे हैं? और देवम के मन में था कि गज़ल के पापा ने ऐसा सब कुछ क्यों
किया?
घर पहुँच कर देवम ने मम्मी को बताया
कि बृद्धाश्रम में रहने वाली बुढ़िया तो मेरे साथ में पढ़ने वाली लड़की गज़ल की
सगी दादी हैं।
देवम ने मम्मी से पूछा-“मम्मी, अगर इस
सब के बारे में गज़ल पूछे तो?”
“हाँ, बता देना, ऐसी बातें कोई छुपने वाली थोड़े ना होतीं हैं।
आज नहीं तो कल, पता तो चलना ही है। और पता चलता है तो चलने दो, इसमें क्या?” मम्मी ने
गम्भीरता के साथ कहा।
देवम इस बात को जानता था कि उसने कोई
गलत काम नहीं किया है। उसने जो कुछ भी किया है उससे उसका समाज में सम्मान बढ़ने
वाला ही है। उसके इस काम से उसके माता-पिता का मस्तक गर्व से ऊँचा ही होगा। और ना
ही कोई डरने की बात है। फिर भी उसने मम्मी की राय लेना उचित समझा।
दूसरे दिन गज़ल, देवम से पूछ ही
बैठी-“बताओ न देवम, क्या बात है जो तुम मुझसे छुपा रहे हो?”
“गज़ल, अगर तुम्हें नहीं मालूम है तो तुम्हारे पापा ने तुमसे
इस बात को छुपाया है। पर बात बहुत दुःखदायी है।” देवम ने
गम्भीरता पूर्वक कहा।
“फिर भी बताओ, मैं सुनने के लिए तैयार हूँ।” गज़ल ने पूरे
साहस के साथ कहा।
“तो सुनो गज़ल, तुम्हारी दादी गाँव से नहीं आईं हैं, तुम्हारे
गाँव तो मैं गया था, भावेश अंकल के साथ। अब तुम्हारे गाँव में, तुम्हारा कुछ भी
नहीं है। न तो मकान और ना ही जमीन। मैं और भावेश अंकल गाँव के पटवारी से मिले थे।
उसने बताया कि कल्पेश जी ने मकान और जमीन दोनों किसी को बेच दिये हैं। जमीन और
मकान अब उसके नाम पर है, तुम्हारे पापा या दादा जी के नाम पर नहीं।” देवम ने बताया।
गज़ल के पैरों के नीचे से तो जैसे
जमीन ही खिसक गई हो। अब उसको काटो तो खून नहीं। उसकी आँखें डबडबा गईं आँसू छलक
पड़े। आश्चर्य और मन में प्रश्न, आखिर पापा ने ऐसा क्यों किया?
“इतना ही नहीं गज़ल, तुम्हारे पापा और मम्मी ने तो दादी जी को
धक्के मार-मारकर घर से बाहर निकाल दिया था। बेचारी गाँव भी गईं थीं पर वहाँ भी
सहारा न मिला। और अब पिछले दो सालों से बृद्धाश्रम में रह रहीं थीं। मैंने
तुम्हारी दादी को रोते हुए देखा है। बेचारी दादी इन दो सालों में कितना रोई होगीं,
बृद्धाश्रम में? एक-एक दिन कैसे कटा होगा उनका, इसका अन्दाज़ लगाना, मेरे लिए
तो बेहद मुश्किल है। ये तो उनकी रोती हुई आँखें और बिलखता हुआ मन ही बता सकेगा।” देवम बहुत भावुक
हो गया।
“पर पापा तो कहते थे कि दादी को गाँव में अच्छा लगता है, उनका
मन यहाँ नहीं लगता है इसलिए वे गाँव के घर में रहतीं हैं।” गज़ल ने कहा।
“झूठ बोलते हैं, तुम्हारे पापा। तुम्हारी दादी पिछले दो सालों
से बृद्धाश्रम में रह रहीं थीं। चलो मेरे साथ, मैं तुम्हें पुछवाऊँगा वहाँ के
लोगों से।” देवम ने कहा।
देवम ने आगे बोलते हुए कहा-“और तुम्हारे
पापा के ऊपर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप भी लगे हैं। पिछले दिनों में तुम्हारे घर
पर सी.वी.आई. और आयकर विभाग का छापा भी पड़ा था। काफी कैश भी बरामद हुआ था। मुझे
नही मालूम, तुम्हें पता है या नहीं। पर सच तो यह है।”
देवम के सामने गज़ल एक बुत जैसी खड़ी
की खड़ी रह गई थी, उसे कुछ नहीं सूझ रहा था आखिर वह करे तो क्या करे?
काश ये धरती ही फट जाती तो वह उसमें
ही समा जाती? सब कुछ जैसे शून्य हो गया था उसके लिए। बोलने के लिए उसके
पास शब्द ही कहाँ थे? और वैसे भी कहने को बचा ही क्या था?
बच्चे जब कोई गलती करते हैं तो बड़े
उन्हें सजा भी देते हैं और मारते भी हैं। और जब बड़े अक्षम्य गलती ही नहीं अपराध
भी करें तो?
घर पर गज़ल, न तो मम्मी से बोली और
ना ही पापा से। उसने खाना भी नहीं खाया। रोती रही और बस रोती ही रही, सारी रात।
नींद कब आई पता नहीं, पर सुबह उसकी आँखें सूजी हुईं थीं और नम थीं।
सुबह पापा ने मनाने की लाख कोशिश की,
पर सब बेकार। गज़ल ने साफ कह दिया-“पापा, आपने अच्छा नही किया है। मेरे जिन्दा रहते हुए दादी जी
को बृद्धाश्रम में रहना पड़ा, कितनी शर्म की बात है मेरे लिए। अब मैं कैसे मुँह
दिखाऊँगी स्कूल में, अपने साथियों को, देवम को। दादी जी के साथ इतना बड़ा अत्याचार? आपने मुझसे
झूँठ बोला है, पापा। यू आर ए लायर, पापा ! आई हेट यू,
पापा ! आई हेट यू।” और काफी देर तक गज़ल रोती रही।
उसने सोच लिया था कि अब उसे
पापा-मम्मी के साथ तो नहीं ही रहना है, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाये।
अब तो वह दादी जी के साथ ही रहेगी और
उनकी सेवा करेगी। बस और कुछ नहीं।
कानून की सारी जंजीरों को तोड़कर
गज़ल, दादी जी से जा चिपकी। गले से लगा लिया था अपनी प्यारी बेटी को दादी ने। दो
आँखों से गंगा और दो आँखों से जमुना का अविरल प्रवाह बह निकला था और फिर तो
पावन-प्रयाग बनना ही था। जिव्हा पर माँ सरस्वती आये बिना कैसे रह सकतीं थीं।
त्रिवेणी संगम, कैसा पुनीत पावन मन-भावन, मंगल-मन-मिलन का दिव्य, अलौकिक संगम।
कैसा विहंगम दिव्य-दृश्य था
दादी-पोती के मिलन का। माँ की ममता पिघली या नहीं, यह तो पता नहीं, पर ब्याज ने तो
अपना रंग दिखा ही दिया था।
अपने प्रिय भक्त प्रह्लाद को अपने
आँचल में समेटे हुए क्रोधित नृसिंह भगवान, मौन पलों के स्पन्दन की अनुभूति कर रहे
थे।
भक्त प्रहलाद ने तो नृसिंह भगवान से
वरदान माँग कर हिरण्यकश्यप को मोक्ष दिला दिया, पर गज़ल ने अपने पापा को क्षमा के लायक
नहीं समझा तो नहीं ही समझा।
और माँ की ममता भी नहीं पिघली और ना
ही मन पसीजा। कल्पेश और शिल्पा को मकान छोड़कर जाना ही पड़ा, कहीं दूसरी जगह। माँ
और बेटी से दूर, अपनी पत्नी और अपने
कर्मों को भुगतने के लिए।
कैसी स्थित होती है उस व्यक्ति की,
जो अपनी माँ और बेटी दोनों की नज़रों में ही गिर जाये। इस अनुभव की अभिव्यक्ति तो
गज़ल के पापा कल्पेश से अघिक अच्छी तरह और कौन कर सकता है। पर तब ही, जबकि उसकी
आँखों में थोड़ा बहुत पानी हो और मन पानी-दार। सूखे रेगिस्तान की तो बात ही व्यर्थ
है।
दूसरे दिन गज़ल, अपनी दादी जी के साथ
देवम के घर पहुँची। मिलने के लिए, धन्यवाद देने के लिए और देवम को आशीष देने के
लिए।
गज़ल और देवम आज बहुत खुश थे। उनके
मन में सन्तोष था और अच्छा काम करने की प्रशन्नता भी। आज गज़ल को दादा जी मिल गये
थे और देवम को दादी जी। दादी को बहू मिल गई थी और बहू को सासू जी। और बूढ़ी बेबस
आँखों को आत्म-सन्तोष।
कभी-कभी तो खून के रिश्तों से ज्यादा
मजबूत होते हैं, मन के रिश्ते। आँखों से सागर छलक रहा था और मन से शुभाशीष।
धन्य है वह कुल, धन्य हैं वे
माता-पिता और धन्य है वह घर, जिस घर में देवम जैसे बेटे जन्म लेते हैं।
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