Friday 28 February 2014

*अक्षर-ज्ञान गंगा*

अक्षर-ज्ञान गंगा
(यह कहानी मेरे बाल-उपन्यास 
*देवम बाल-उपन्यास
से ली गई है।)
...आनन्द विश्वास
अक्षर-ज्ञान गंगा
सुबह के पाँच बजे और देवम का उठना, जैसे दोनों ही एक दूसरे के पर्याय हैं। विस्तर से उठकर, कर-दर्शन और फिर धरा-स्पर्श। फ्रेश होना और फिर अपने मित्र शुभम के साथ या फिर कभी-कभी घोष बाबू के साथ निकल जाना, मोर्निंग-वॉक पर। लगभग आधा घण्टा गार्डन में व्यायाम, जौगिंग, योगा और फिर घर वापस। और फिर स्कूल।
घर से गार्डन तक पहुँचने के लिए देवम को रास्ते में स्लम-एरिया से गुजरना पड़ता। लगभग दस-बारह झोंपड़ी होंगी। यूँ तो यहाँ होकर देवम रोज़ ही गुजरता था पर आज, लौटते समय उसने एक झोंपड़ी के सामने एक दस एक साल के बच्चे को पिटते हुए देखा।
बाप उसे पीट रहा था और बच्चा रोते-रोते कह रहा था, पापा, बस करो। अब और मत पिओ। हम बरबाद हो जाऐंगे। ये शराब हमें बरबाद कर देगी, कुछ नहीं बचेगा अपने पास।
और शराबी बाप, नशे में धत्त, जिसकी जबान और पैर दोनों लड़खड़ा रहे थे। चिल्ला कर बोला, “ मैं कमाता हूँ तो पीऊँगा भी, तू कौन होता है मुझे रोकने वाला ? ”
नहीं बापू, तुम्हें मेरी कसम जो तुमने और पी। बेटे ने आखिरी शस्त्र का प्रयोग किया।
पर बापू को होश हो तब न। वह नहीं रुका तो नहीं ही रुका। बच्चे की माँ भी कह-कह कर हार गई।
लोगों ने बताया, यहाँ तो अक्सर ऐसा होता ही रहता है। बस बेटा और बापू बदल जाते, स्थान बदल जाता है, घर बदल जाता है पर नाटक तो वही का वही ही रहता है। भीड़ इकट्ठी होती है और फिर छट जाती है, नाटक देख कर। नशे में धत्त बापू वहीं पड़ा रहा।
और सच ही तो है जब कोई काम-काज न हो तो आदमी से और क्या अपेक्षा की जा सकती है। बेकारी और भुखमरी का शिकार भी तो आखिर इन्हें ही तो होना होता है और फिर मँहगाई भी साथ दे, तब तो सोने में सुहागा।
खाली दिमाग शैतान का घर तो होता ही है और यदि शैतान उपद्रव न करे, तो कैसा शैतान ?
सारे दिन बस या तो एक दूसरे से झगड़ा करना, ताश के पत्ते खेलना और अगर कहीं से दो पैसे आ गये तो जुआ खेलना, यहाँ के लोगों की दिन-चर्या में शामिल होता।
इस घटना ने देवम के मन को झकझोर कर रख दिया। उसके मन में तरह-तरह के विचार भी आ रहे थे और वह समस्या का समाधान करना ही चाहता था।
स्कूल से घर आने के बाद, देवम ने झोंपड़-पट्टी में जाने का निश्चय किया। अपने मित्र शुभम को साथ ले कर चल पड़ा उनसे मिलने के लिये।
बापू तो काम पर गया था। लड़का और उसकी माँ घर पर थे। देवम और शुभम को देख कर पास के ही दो तीन लड़के-लड़कियाँ भी आ गये।
उन सब से पूछने पर पता चला कि उनमें से एक भी ऐसा नहीं था जो स्कूल जाता हो। कोई तो सुबह उठते ही प्लास्टिक और पोलीथीन की थैली बीनने चला जाता। उसे बेचने से जो पैसा मिलता, उसी से घर का गुजारा चलता। तो कोई सुबह से लेकर शाम तक चाय की दुकान पर कप-प्लेट धोने का काम करता। बाकी सब तो बस रखड़-पट्टी ही करते रहते, आवारा-गर्दी और कुछ नहीं। लड़कियाँ, अपनी माँ के साथ छोटा-मोटा काम कर लेतीं।
देवम के मन में विचार आया कि ये बच्चे दिन भर कोई काम भी नहीं करते हैं और केवल गंदी-गंदी आदतें ही सीखते रहते हैं क्यों न कोई ऐसी व्यवस्था की जाय जिससे कि इनका पढ़ना शुरू हो सके और इनमें अच्छे संस्कारों का सिंचन भी हो सके। साथ ही कोई ऐसी व्यवस्था हो जाय जिससे कि इनकी आर्थिक स्थिति में भी सुधार हो सके।
देवम का विचार था कि जो पैसा उसे आतंकवादियों को पकड़वाने से सरकार द्वारा प्राप्त हुआ है, उस पैसे का यदि सही ढंग से उपयोग किया जाये तो इन लोगों की आर्थिक स्थिति भी सुधार हो सकेगा, साक्षरता आ सकेगी। इनकी भटकी हुई जिन्दगी को नई दिशा मिल सकेगी और दशा भी सुधर सकेगी। इनके जीवन में भी नई रौशनी का आगमन भी हो सकेगा।
बाल-बुद्धि जितना सोच सकती थी, उससे अधिक ही सोचा था देवम ने। और फिर देवम ने अपनी इस समस्या को मम्मी को बताया। एक बार को तो मम्मी भी सोच में पड़ गईं कि कैसे हो सकेगा, इस समस्या का समाघान।
देवम को घोष बाबू का ख्याल आया। घोष बाबू, हाँ देवम के घर से तीसरा ही तो घर है घोष बाबू का। फौज के रिटायर्ड मेज़र। काफी बड़ा घर और रहने वाले अकेले इंसान। सौम्य सुभाव, मिलनसार, बच्चों के प्यारे घोष बाबू।
कोई बच्चा भूल से भी अगर उन्हें दादा जी कह दे तो मीठा-गुस्सा करते हुए कहते, “ नो नो नो, नो दादा जी, बस घोष बाबू और केवल घोष बाबू कहो। घोष बाबू अच्छा लगता है। और बच्चों के साथ बच्चे ही बन जाते घोष बाबू। बच्चे भी उन्हें घोष बाबू ही कहते और आत्मीयता का अनुभव करते।
देवम ने मम्मी से कहा, “ मम्मी, अगर घोष बाबू से बात की जाय और वे तैयार हो जायेंतो समस्या का हल सम्भव है।
वो कैसे ? ” मम्मी ने आतुरता के साथ पूछा।
मम्मी, घोष बाबू का इतना बड़ा मकान है और वह सब खाली ही तो पड़ा रहता है और वे कई बार हम सब बच्चों से कह भी चुके हैं कि सारा मकान खाली पड़ा रहता है बच्चो, तुम यहीं खेला करो। तुम यहाँ खेलोगे तो मेरा मन भी लगा रहेगा। देवम ने मम्मी को बताया।
उससे क्या होगा ? ” मम्मी ने फिर पूछा।
अगर उनके नीचे वाले दो रूम अपन को मिल जाएँ, तो बच्चों के पढ़ने की व्यवस्था वहाँ हो सकेगी। ”  देवम ने मम्मी को समस्या-हल की युक्ति बताई।
देवम की बात मम्मी की समझ में आ गई और उन्होंने कहा, “ ठीक है आज शाम को तेरे पापा से पूछ कर बात कर लेते हैं। देखें वे क्या कहते हैं ? ”
शाम को देवम और देवम के पापा-मम्मी घोष बाबू के घर गये और अपनी योजना और साक्षरता मिशन के बारे में बताया तो वे खुश-खुश हो गए।
वे बोले, “ मैने तो इन बच्चा-पलटन को पहले ही बोला हुआ है कि ये इतना बड़ा घर खाली पड़ा रहता है और मेरे पास भी कोई काम नहीं है। बड़ा अच्छा रहेगा मैं भी देवम की हैल्प करूँगा। वैरी नाइस ऑइडिया ! ” खुश-खुश हो गए थे घोष बाबू। असल में वे भी तो कुछ ऐसा ही करना चाहते थे।
उम्मीद से अधिक ही मिल गया था देवम को। घोष बाबू के सहयोग ने तो देवम की कल्पना में पंख ही लगा दिए थे, अनंत आकाश में उड़ने के लिए। घोष बाबू के आश्वासन से देवम को बल मिल गया था।
देवम ने अपने सभी मित्रों को घोष बाबू के घर पर ही बुला कर अपनी अक्षर-ज्ञान योजना के विषय में बताया और राय माँगी तो सभी मित्रों ने इस भागीरथ-कार्य की सराहना की। और अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए।
शुभम ने कहा, “ हमें उनसे पहले बात करनी पड़ेगी कि वे पढ़ना भी चाहते हैं या नहीं।
यदि हम उनके लिए यहाँ पर कुछ नाश्ता बगैरा की व्यवस्था करें, तो वे जरूर आऐंगे। शीला ने प्रस्ताव रखा।
शर्लिन ने कहा, “ उनके लिए दो-दो जोड़ी कपड़ों की व्यवस्था की जाय ताकि वे खुशी-खुशी यहाँ आऐं। वर्ना उनमें गरीबी का एहसास रहेगा, और वे यहाँ नहीं आऐंगे। ” 
सभी कॉपी-किताबें, कम्पास बॉक्स, बैग आदि उन्हें फ्री दिया जाय। पिंकी की राय थी।
पढ़ाई के साथ-साथ यदि उन्हें थोड़ा पैसा हर महीने दिया जाय तो अच्छा रहेगा। सरल ने कहा।
हम अगर पैसा देंगे तो इनके पापा पैसे का गलत जगह पर भी उपयोग कर सकते हैं। क्यों न हम अपने डिपार्टमेंटल स्टोर्स के कूपन इन्हें दें, जो कुछ भी खरीदना हो वहाँ से खरीद सकते हैं। आटा, दाल, चावल, सब्जी आदि सब कुछ।  शीला ने कहा।
निश्चय किया गया कि एक दिन की उपस्थिति पर पंद्रह रुपये के कूपन, इस प्रकार महिने में चार सौ पचास रुपये की राशि प्रत्येक विद्यार्थी को दी जाय।
अपने साथियों के द्वारा दिए गए सभी परामर्श देवम और घोष बाबू को पसंद आए।
फिर सभी ने मिल कर एक मत से निर्णय लिया कि पैसे और पूरी व्यवस्था घोष बाबू की देख-रेख में रहेगी। साथ ही संस्था का नाम अक्षर-ज्ञान गंगा रखा गया।
सभी मित्रों के विचार और आयोजन का प्रारूप देवम ने अपने पापा और सोसायटी के सेक्रेटरी के समक्ष रखा तो उन्होंने पूरे सहयोग का आश्वासन दिया।
 घोष बाबू, देवम, शुभम और शर्लिन ने झोंपड़-पट्टी में पहुँच कर सभी बच्चों के सामने पढ़ाई और अक्षर-ज्ञान का प्रस्ताव रखा और बताया कि आपको कुछ भी खर्च नहीं करना है वल्कि पढ़ने पर आपको पैसे भी मिलेंगे। पहनने को कपड़े और किताब-कॉपी भी दी जाऐंगी। तो कुछ बच्चे तो पढ़ने के लिए तैयार हुए और कुछ नहीं।
जो बच्चे तैयार हुए उनके माता-पिता से भी बात की तो उन्होंने भी स्वीकृति दे दी। कुल ग्यारह बच्चे, नौ लड़के और दो लड़कियाँ, देवम के इस अभियान में शामिल हुए।
देवम खुश था। ग्यारह बच्चों को अक्षर-ज्ञान और अच्छे संस्कार देने में यदि वह सफल हो जाता है तो उसका प्रथम प्रयास कुछ कम नहीं होगा।
सबसे पहले तो घोष बाबू के दोनों कमरों को साफ करवाया गया और उसमें कुछ फर्नीचर, कुर्सी, टेबल आदि की व्यवस्था की गई। कुछ फर्नीचर घोष बाबू के घर से, कुछ देवम और मित्रों के घर से मँगवा लिया गया। घोष बाबू ने एक कमरा और खाली करवा दिया, जिसे कि ऑफिस के रूप में उपयोग किया जा सके। पानी इत्यादि की भी व्यवस्था कर दी गई।
सोसायटी में ही दो लड़कियाँ ऐसी थीं जिन्होंने बी.ए. बी.ऍड. किया हुआ था और जिन्हें नौकरी की तलाश थी। वे यहाँ पढ़ाने के लिए तैयार हो गईं।
 घोष बाबू के साथ देवम, शीला और शर्लिन ने बाजार जाकर सभी आवश्यक सामान खरीदा। ड्रेस के कपड़ा पसंद कर, दर्जी को दुकानदार से मिलवा दिया। ताकि आवश्यकता के अनुसार दर्जी दुकान से कपड़ा ले सके।
देवम ने सभी ग्यारह बच्चों को बुलवाया। दर्जी को बुलवा कर सभी का नाप दिलवा कर दो दिन में ड्रेस तैयार करने को कहा। बैग, किताबें और कम्पास बॉक्स भी बच्चों को दे दिये। और फिर दो दिन के बाद मंगल वार को ड्रेस ले जाने के लिए कह दिया।
उन्हें सूचना दी कि गुरुवार को अक्षर-ज्ञान गंगा का उदघाटन-समारोह प्रातः नौ बजे होगा। सभी समय पर आ जायें। बच्चे खुश थे शायद उनकी आँखों में उज्ज्वल भविष्य के सपने साकार हो रहे थे।
उनमें से दो-तीन लड़कों ने तो देवम से पूछा भी कि यदि कोई हमारे लायक काम हो तो जरूर बताएँ। उनके ऐसे व्यवहार ने देवम के मन को उत्साह और उमंग से भर दिया। ये गरीब लोग धन से गरीब होते हैं मन के तो कुबेर ही होते हैं। अपनों के लिए तो कलेजा निकाल कर ही रख देते हैं ये लोग। कोई इन्हें अपनाकर तो देखे।
गुरुवार गुरु-पूर्णिमा का पावन मंगल-मय शुभ-दिवस को अक्षर-ज्ञान गंगा का उदघाटन समारोह रखा गया। पुलिस-विभाग के अफसर और आई.जी. स्कूल की प्रिंसीपल आरती मैडम, स्कूल स्टाफ, देवम के दोस्त तथा सोसायटी के सभी लोगों को आमंत्रित किया गया।
सभी ने देवम के इस भागीरथ-प्रयास की प्रशंसा की तथा हर तरह के सहयोग का आश्वासन भी दिया। डोनेशन की गंगा बह निकली थी देवम के सहयोग के लिए।
देवम के स्कूल के संचालक श्री रामदयाल जी ने एक लाख रुपये का डोनेशन संस्था को दिया। पुलिस-विभाग के आई.जी. श्रीवास्तव साहब ने ग्यारह हजार रुपये, प्रिंसीपल आरती मैडम ने ग्यारह हजार रुपये और स्कूल के सभी साथियों ने अपनी-अपनी पॉकेट-मनी और ढेर सारी शुभ कामनाऐं।
प्रिंसीपल आरती मैडम ने देवम को हर प्रकार की सहायता का आश्वासन दिया और कहा कि मैं ऐसी संस्थाओं से बात करती हूँ, जो इस प्रकार के कार्यों में रुचि रखते हैं। बहुत से लोग ऐसे हैं जो अपने पैसे को जन-हितकारी कार्यों में लगाना चाहते हैं। पर उन्हें सही और ईमानदार व्यक्ति की तलाश रहती है। ताकि पैसा सुपात्र तक पहुँचे। कई मेरे परिचित हैं।
पुलिस-विभाग के आई.जी.श्रीवास्तव साहब, देवम के इस कार्य से बड़े प्रभावित हुए और इस बात की उन्हें बड़ी खुशी थी कि इनाम में दिए गये धन का उपयोग अच्छे कार्य के लिए किया जा रहा है। विभाग को जब इस कार्य के बारे में पता चला तो उन्होंने काफी धन का कन्ट्रीव्यूशन कर देवम के पास पहुँचाया।
दूसरे दिन से सभी बच्चे, नये-नये कपड़े पहन कर, समय से पहले ही आ गये। उनकी आँखों में चमक और मन में कुछ करने का, कुछ बनने का उत्साह था।
 अक्षर-ज्ञान गंगा में शिक्षा का श्री गणेश किया गया। सर्व प्रथम ईश-वंदना की गई। फिर घोष बाबू ने थोड़ा योग और प्राणायाम कराया। और दोनों शिक्षिका-बहनों ने अक्षर लिखना सिखाया तथा घर पर अभ्यास के लिए भी काम दिया। कुछ नैतिक ज्ञान भी दिया गया। बीच में नाश्ते की व्यवस्था भी रखी गई।
एक सप्ताह भी न बीत पाया था जैसे-जैसे लोगों को पता चला, बच्चों की संख्या भी बढ़ने लगी। कई सेवा-भावी संस्थाओं ने देवम और घोष बाबू से सम्पर्क किया और सहयोग का आश्वासन भी दिया।
दलित सेवा समिति ने देवम और घोष बाबू  को दूसरे स्थान पर भी इसी प्रकार की संस्था खोलने का प्रस्ताव रखा। देवम और घोष बाबू ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर शीघ्र ही दूसरी शाखा खोलने का आश्वासन दिया।
पैसा और सहयोग समस्या नहीं थी। और यही तो सही काम का माप-दण्ड होता है। जन समुदाय का तन-मन-धन से समर्थन ही बताता है कि आपका कार्य और सोच सही  दिशा में है।
घोष बाबू का काम और जिम्मेवारी अब बढ़ गई थी। रिटायर्ड घोष बाबू, अब सबसे अधिक व्यस्त घोष बाबू हो गये थे। 
जो बच्चे झौंपड़-पट्टी के सामने ताश के पत्ते खेलते नज़र आते थे वे आज कॉपी पर लिखते और किताब पढ़ते दिखाई दिए। संस्कार बदलने में देर तो लग सकती है पर न बदले जा सकें, ऐसा तो नहीं है। लड़ते-झगड़ते बच्चों को प्यार से पढ़ते पाया गया।
अक्षर-ज्ञान गंगा   प्रगति की ओर अग्रसर हो गई थी। देवम का सपना साकार हो गया था।
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