Friday 26 December 2014

*सूरज दादा कहाँ गए तुम*

*सूरज दादा कहाँ गए तुम*
...आनन्द विश्वास


सूरज  दादा  कहाँ   गए  तुम,
काह ईद  का  चाँद  भए तुम।
घना   अँधेरा,  काला - काला,
दिन निकला पर नहीं उजाला।
कोहरे   ने  कोहराम  मचाया,
पारा  गिर  कर  नीचे  आया।
काले  बादल   जिया   डराते,
हॉरर-शो  सा  दृश्य  दिखाते।
बर्षा  रानी   आँख   दिखाती,
झम झम झम पानी बरसाती।
काले – काले    बादल   आते,
उमड़-घुमड़  कर शोर मचाते।
नन्हीं - नन्हीं  बूँद  कभी  तो,
कभी ज़ोर  की  बारिश लाते।
सर्द  हवाऐं,  शीत  लहर  है,
बे-मौसम  बरसात, कहर  है।
*टच मी नॉट* कहे  अब पानी,
*बाहर ना जा* कहती  नानी।
कट - कट दाँत  बजाते बाजा,
मौसम  अपना  बैण्ड बजाता।
सड़क,  गली,  कूँचे,  चौबारे,
सब   सूने  हैं   ठंड  के  मारे।
फुट - पाथी,   बेघर,  बेचारे,
इन सबके  तो  तुम्हीं  सहारे।
अब तो  सुन लो, सूरज दादा,
कल  आने  का  दे  दो  वादा।

...आनन्द विश्वास
http://anandvishwas.blogspot.in/2014/12/blog-post.html

Thursday 30 October 2014

*पर-कटी पाखी* (बाल-उपन्यास)

प्रस्तावना
बालक के माता और पिता, दो पंख ही तो होते हैं उसके, जिनकी सहायता से बालक अपनी बुलन्दियों की ऊँचे से ऊँची उड़ान भर पाता है। एक बुलन्द हौसला होतें हैं, अदम्य-शक्ति होते हैं और होते हैं एक आत्म-विश्वास, उसके लिये, उसके माता और पिता।  
आकाश को अपनी मुट्ठी में बन्द कर लेने की क्षमता होती है उसमें। ऊर्जा और शक्ति के स्रोत, सूरज को भी, गाल में कैद कर लेने की क्षमता होती है बाल-हनुमान में। अदम्य शक्ति और ऊर्जा के स्रोत सूरज और चन्दा तो मात्र खिलौने ही होते हैं बाल-कृष्ण और बाल-हनुमान के लिये।
क्योंकि ऊर्जा और शक्ति का अविरल स्रोत होता है उसके साथ, उसके पास, उसके माता और पिता।
शिव और शक्ति के इर्द-गिर्द ही तो परिक्रमा करते रहते हैं बाल-गणेश और उनकी कृपा मात्र से ही तीनों लोकों में वन्दनीय हो जाते हैं, पूजनीय हो जाते हैं और प्रथम-वन्दन के योग्य हो जाते हैं बाल-गणेश।
इस उपन्यास में पाखी हर घटना का मुख्य पात्र है। उपन्यास की हर घटना पाखी के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है। पाखी के पिता सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट जी की भ्रष्टाचारी और असमाजिक तत्वों के द्वारा हत्या करा दी जाती है। पाखी किस प्रकार से समाज और कानून की व्यवस्था से लड़ कर उन्हें दण्डित कराती है, अत्यन्त रोचक घटना बन पड़ी है।
पर कटी हुई खून से लथपथ घायल चिड़िया का आकाश से पाखी की छत पर, उसके पास गिर जाने की घटना, पाखी के मन को विचलित कर देती है। फड़फड़ाती हुई बेदम चिड़िया के खून को अपने दुपट्टे से साफ कर, वह दौड़ पड़ती है अपने डॉक्टर अंकल के दवाखाने की ओर, उसका इलाज कराने के लिये, उसके जीवन को बचाने के लिये।
पाखी ने चिड़िया को बचा तो लिया, पर अब बिना पंख के ये बेचारी *पर-कटी चिड़िया* कैसे जी पायेगी अपनी जिन्दगी के शेष दिनों को। कौन है इसका आत्मीय-जन, जो इसे जीवन-भर दाना-पानी देता रहेगा और इसकी इसके ही समाज के चील, बाज़, गिद्ध आदि से पल-पल रक्षा करता रहेगा। ये तो अपनी रक्षा भी नहीं कर सकेगी अपने आप।  
कोई पैसे वाली बड़ी आसामी रही होती तो पैसे के पंख लगाकर उड़ लेती। कोई चार्टर-प्लेन ही ले लेती और अपने घर पर ही लैंडिंग की सुविधा भी बना लेती। आगे-पीछे घूमने वाले हजारों नौकर-चाकर भी मिल जाते इसको। और अपनी जिन्दगी के शेष दिनों को भी बड़े ऐश और आराम के साथ पसार भी कर लेती यह। पर अब, पैसे के बिना कृत्रिम-पंख भी तो नहीं लगवा सकती यह।
बिना पंख के तो ये *पर-कटी* अपने बच्चों के पास तक भी नहीं पहुँच सकती और कोमल बाल-पंख इतने शक्तिशाली कहाँ, जो उड़कर इसके पास तक आ भी सकें। अभी तो उन्हें ढंग से बैठना भी नहीं आता। ये तो अपने बच्चों के लिये दाना लेने ही आई थी और पंख देकर यहीं की होकर रह गई।
*पर-कटी चिड़िया* की आँखों में पाखी को अपना ही प्रतिविम्ब तो दिखाई दे रहा था। सब कुछ तो समान था दोनों में । दोनों ही नारी जाति के थे, दोनों का ही एक-एक पंख कटा हुआ था, दोनों ही शोषित-वर्ग से थे और संयोग-वश नाम भी तो दोनों का एक ही था। और वह नाम था पाखी। हाँ, *पाखी*, *पर-कटी पाखी*।  
      फर्क बस इतना था कि एक नभ-चर प्राणी था और दूसरा थल-चर प्राणी। एक आकाश में उड़ता था और दूसरा आकाश में उड़ने के सपने देखता था। और आज एक निष्ठुर पतंग-बाज और स्वार्थी-समाज ने वह फर्क भी मिटा दिया। आज दोनों के दोनों ही धरती के प्राणी होकर रह गये हैं, धरती पर आ गये हैं। आकाश में उड़ने के अपने स्वर्णिम सपनों को सदा-सदा के लिये तिलांजली देकर।
बाल-मन निर्मल, पावन और कोमल ऋषि-मन होता है। बालक तो निश्छल और निःस्वार्थ भाव से प्रेम करते हैं। और प्रेम ही तो मोह का मूल कारण होता है। बन्धन में बाँध लेता है भावुक भोले-मन को।
राजा दिलीप ने भी नन्दिनी की गौ-सेवा इतनी तन्मयता और तत्परता के साथ नहीं की होगी जितनी सेवा-सुश्रुषा पाखी ने अपनी पर-कटी चिड़िया की की। राजा दिलीप का तो स्वार्थ था, पर पाखी का तो क्या स्वार्थ।
बन्द पिंजरे में तोते पाखी को बिलकुल भी नहीं रास आते। वह पलक से उन्हें छोड़ने का आग्रह करती है। वह पक्षी बचाओ अभियान का संचालन करती है और *पाखी हित-रक्षक समिति* का गठन भी करती है।
इस उपन्यास की हर घटना सभी वर्ग के पाठकों को चिन्तन और मनन करने के लिये विवश करेगी। बालकों में संस्कार-सिंचन और युवा-वर्ग का पथ-प्रदर्शन कर उन्हें एक नई दिशा देगी। ऐसा मेरा विश्वास है। अस्तु।
 -आनन्द विश्वास
सी-85 ईस्ट एण्ड एपार्टमेंटस्
न्यू अशोक नगर मेट्रो स्टेशन के पास
मयूर विहार फेस-1 (एक्सटेंशन)
नई दिल्ली -110 096.
मोः 9898529244, 7042859040.
E-mail: anandvishvas@gmail.com.


  

Friday 15 August 2014

*हम बच्चे हिन्दुस्तान के.*

*हम बच्चे हिन्दुस्तान के.*
...आनन्द विश्वास
हम     बच्चे    हिन्दुस्तान   के।
हम     बच्चे    हिन्दुस्तान   के।
शीश   झुकाना  नहीं  जानते,
शीश   कटाना    ही   जाना।
मेरा  मजहब  मुझको  प्यारा,
पर  का  मजहब  कब  माना।
गोविन्द  सिंह के  वीर  सिंह,
हम  पले  सदा  तलवारों  में।
अपने   बच्चे   चिनवा   डाले,
जीते      जी     दीवारों    में।
रग-रग    में   है  स्वाभिमान,
हम   चलते  सीना  तान   के।   
हम     बच्चे    हिन्दुस्तान  के।
सागर   हमसे   थर-थर कांपे,
पर्वत   शीश    झुकाता    है।
तूफानों   की  राह  मोड़ कर,
वीर    सदा    मुस्काता    है।
राणा  सांगा के  हम वंशज,
और   शिवा  के  हम   भाई।
परवशता   की   बेड़ी  काटी,
और   घास  की  रोटी  खाई।
स्वाभिमान की जलती ज्वाला,
हम   जौहर    राजस्थान   के।
हम     बच्चे    हिन्दुस्तान   के।
गौतम   गाँधी  के  हम साधक,
विश्व    शांति    के  अनुयायी।
मानवता    के  लिए    जियेंगे ,
राजघाट   पर    कसमें   खाईं।
इंगलिश  भारत  माँ  के  गहने,
हिंदी   है    माता   की   बिंदी।
गुजराती  परिधान  पहन  कर,
गाना    गाते    हम      सिंधी।
शांति - दूत हम  क्रांति - दूत,
हम   तारे   नील  वितान   के। 
हम     बच्चे    हिन्दुस्तान   के।


                                               ... आनन्द विश्वास

Friday 28 March 2014

हम मोटी चमड़ी वाले हैं.

हम मोटी चमड़ी वाले हैं.
...आनन्द विश्वास
हम  मोटी  चमड़ी वाले हैं, हम नहीं  सुधरने वाले हैं।
चलती है सत्ता  हम से ही,  हम सत्ता  के रखवाले हैं।
काला   धन   हमने  पाया  है,
मुश्किल  से  इसे  कमाया  है।
कितना  लम्बा ये जाल  बुना,
मुश्किल  से  इसे   बनाया  हैं।
चुल्लू में  सागर पी जायें, हम ऐसे ज़ालिम विषधर हैं।
छोटी मछली, मोटी मछली, सागर में अजगर पाले हैं।
तुमको  जो  करना  है  कर  लो,
हमको  जो  करना  है  कर  लें।
तुम कह  कर मन हल्का कर लो,
हम  अपना  घर  थोड़ा भर  लें।
मत और न हमको तंग करो, हमसे ना कोई जंग करो।
हम अब  तक  खाते आये हैंआगे भी खाने  वाले  हैं।
तुमको  क्यों  दर्द  हुआ  करता,
हर  जन  तो यही दुआ करता।
धन - दौलत  सबके  घर  आये,
खुशहाली  घर - घर  में  छाये।
तुम संग हमारे आ जाओ,पल भर में दौलत पा जाओ।
हम साथ निभाते आये हैं, हम साथ  निभाने  वाले हैं।
तुम  कहते  हो  जिसे  जेल  है,
जेल  नहीं  है,  खेल  यही  है।
जनता  से   रक्षा   मिलती  है,
फिर  कड़ी  सुरक्षा  मिलती है।
जिन डॉन-डकैतों से दुनियाँ, डरती  है अरु थर्राती  है,
उनके संग अपना मेल-जोल, वे ही तो हमें सम्हाले हैं।
कितने दिन से तुम खाँस रहे,
मेरे  भैया  कुछ  ले  लो  ना।
पकड़ो  तुम मेरा  हाथ  सखे,
बहती गंगा, मुँह धो  लो ना।
सुख-चैन तुम्हारे द्वार खड़ा,आगत का स्वागत कर लो ना,
ये  दुनियाँ  आनी-जानी  है, हम  सब भी  जाने वाले हैं।
काला  धन है, काला  मन  है,
मुँह भी तो  अपना  काला है।
सूरदास  की   कमरी  अपनी,
कोई  रंग  न  चढ़ने वाला है।
पुस्तैनी-पेढ़ी है अपनी, अपना  ही  सिक्का  चलता है,
अपना ही जलवा यहाँ-वहाँ, बाकी तो जलने वाले हैं।
ये   मंज़िल  है   नहीं  हमारी,
ये    तो     सिर्फ   पड़ाव   है।
सिक्का  अपना  चले  विश्व  में,
ऐसा     अपना     ख्वाब   है।
बहुत सुनी जनता की गाली और बहुत सी लम्पट बातें,
अब और न  सहने वाले  हैं, हम जाँच  कराने वाले  हैं।
...आनन्द विश्वास.


Saturday 8 March 2014

*अबोध बालक*

*अबोध बालक*
(यह कहानी मेरे बाल-उपन्यास *देवम बाल-उपन्यास* से ली गई है।)
...आनन्द विश्वास

 *अबोध बालक*
देवम का घर स्कूल से थोड़ी ही दूरी पर है। वह अक्सर अपने साथियों के साथ पैदल ही या कभी-कभी साइकिल से स्कूल आया-जाया करता है। और जब कभी पापा के पास समय होता तो वे स्कूटर या कार से उसे स्कूल छोड़ देते और आते समय वह पैदल ही अपने साथियों के साथ वापस आ जाता।
शाम को देवम स्कूल के मैदान में फुटबॉल खेलने जाता, वह स्कूल की टीम में भी खेलता। शाम को देवम के स्कूल में पी.टी. सर अपनी देख-रेख में सभी खिलाड़ियों को खिलाते और प्रशिक्षण भी देते। देवम का यह नित्य का नियम है शाम हुई नही कि देवम स्कूल के मैदान पर।
देवम हॉकी, फुटबॉल तथा क्रिकेट बहुत अच्छा खेलता, स्कूल के सभी शिक्षक, छात्र उसका सम्मान भी करते। और जब कभी भी देवम की टीम जीतती तो उसमें देवम का योगदान अवश्य होता। देवम अपनी स्कूल की फुटबॉल टीम का कैप्टिन भी है।
आज स्कूल में फुटबॉल के टूर्नामेंट का फाइनल मैच सौरभ विद्यालय से है। स्कूल में काफी दर्शक और स्कूल के छात्र भी आये हुये है।
शहर के नेशनल डिग्री कॉलेज के प्राचार्य डॉ. राजेश गौड़ अतिथि-विशेष के रूप में आये थे। जो यूनिवर्सिटी स्पोर्टस् कमेटी के सदस्य भी हैं और किसी समय वे अच्छे खिलाड़ी भी रहे थे।
देवम के स्कूल की टीम ने सौरभ विद्यालय की टीम को दो गोल से हरा कर शील्ड जीत ली। जिसमें एक गोल देवम ने और दूसरा गोल उसके साथी राहुल ने किया।
सभी दर्शक देवम और राहुल के खेल की बहुत-बहुत तारीफ़ कर रहे थे। जिनके पासिंग कम्बीनेशन से ही गाँधी विद्यालय जीत सका। अतिथि विशेष को भी देवम और राहुल का खेल बहुत पसंद आया। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने देवम और राहुल के खेल की प्रशंसा भी की थी।
जीतने वाले तथा हारने वाले दोनों टीम के सभी खिलाड़ियों को अतिथि-विशेष के द्वारा पुरस्कार का वितरण किया गया और शील्ड गाँधी विद्यालय के कैप्टिन देवम और साथी खिलाड़ियों को प्रदान की गई। शाम का समय हो चुका था। खेल खत्म होने के बाद देवम और उसके साथी पैदल ही अपने घर की ओर आ रहे थे।
इन्हीं के साथ कुछ बच्चे भी खेलते-खेलते मस्ती में चल रहे थे। शायद वे कुछ खेल के मूड में रहे होंगे, वे पत्थर उठा कर थोड़ी दूर पड़े, दूसरे पत्थर को मार कर अपना निशाना लगा रहे थे। और इस प्रकार शर्त लगा कर वे कभी जीतते तो कभी हारते, और अपने घर की ओर बढते जा रहे थे।
उसमें से एक ने कहा- अच्छा सामने उस पत्थर पर निशाना लगा। और फिर दूसरे ने पत्थर हाथ में लेकर निशाना मारा। पत्थर ठीक लक्ष्य पर लगा। अच्छा, चल तेरे सात पोइंट हो गये।
अच्छा, चल अब तू उस विजली के खम्भे पर निशाना लगा। और इस बार फिर निशाना सही बैठा, इस पर दूसरे का एक पोइंट और बढ़ गया। और अब इस बार लक्ष्य था सड़क के दूसरी ओर खड़े टेलीफोन के खम्भे का।
दोनों के हाथ में पत्थर थे और अर्जुन की भाँति लक्ष्य की ओर निशाना। उन्होने सड़क के दूसरी ओर खड़े टेलीफोन के खम्भे की ओर पत्थर फेंके।
पत्थर हाथों से निकल चुके थे, तभी तेजी से दौड़ती हुई जीप सड़क पर गुजरी और पत्थर जीप-चालक के सिर पर जा लगा।
एक जोरदार चीख के साथ ही ड्राइवर जीप का सन्तुलन खो बैठा। और असंतुलित जीप, साइकिल को रौंदती हुई, स्कूटर को टक्कर मार कर सड़क के किनारे खड़ी बस से जा टकराई।
जीप में बैठे हुये पुलिस के दारोगा तथा तीन सिपाहियों को काफी चोट लगी। बड़ी मुश्किल से जीप में फँसे लोगों बाहर निकाला गया। काफी लोग लहू-लुहान हो गये थे।
साइकिल पर स्कूल का ही छात्र राहुल था। जो स्कूल से मैच खेल कर घर वापस जा रहा था। उसकी साइकिल के ऊपर से जीप का अगला पहिया निकला गया था और राहुल को भी बहुत चोट आई। वह बेहोश हो  गया था और चल भी नहीं सकता था।
राहुल, गाँधी विद्यालय का छात्र और देवम का परम मित्र भी। देवम और राहुल दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे। राहुल स्कूल टीम में मैच खेल कर वापस घर जा रहा था। एक गोल उसने भी किया था।
अपने साथी राहुल को घायल अवस्था में देख कर देवम एक पल के लिये तो किं कर्तव्यम् विमूढ ही हो गया और दूसरे क्षण ही उसने त्वरित निर्णय लेते हुये अपने दो साथी विजय और आकाश से कहा कि तुम तुरन्त इसकी सूचना स्कूल में जाकर आरती मैडम को दो और मैं राहुल को ले कर अस्पताल पहुँच रहा हूँ।
इधर दो तीन लोगों की सहायता से देवम ने राहुल को रिक्शे में बैठा कर अस्पताल ले जाने की व्यवस्था की। कुछ लोग कहने लगे कि पहले पुलिस केस करना पड़ेगा फिर अस्पताल ले जाना सम्भव होगा।
पर देवम ने इन लोगों की एक न सुनी और राहुल को अस्पताल पहुँचा कर तुरन्त ही इलाज की व्यवस्था करवाई। अस्पताल के डॉक्टर देवम के पापा के परम मित्र थे अतः बहुत कुछ समस्या अपने आप ही हल हो गई।
और जब देवम ने डॉक्टर अंकल को बताया कि राहुल उसका परम मित्र है तो फिर इलाज की पूरी व्यवस्था डॉक्टर अंकल ने अपनी देख-रेख में ही की।
राहुल की अस्पताल में व्यवस्था कर देवम ने राहुल के घर जाकर सूचना दी और राहुल की माँ को अपने साथ लेकर वापस अस्पताल आ गया। राहुल की माँ का रोते-रोते बुरा हाल हो गया था। पर होनी को कौन टाल सकता है ? आदमी इसके आगे विवश हो जाता है।
उधर घटना-स्थल पर देखते ही देखते हजारों की संख्या में भीड़ इकट्ठी हो गई। सारे शहर में हर जगह यही चर्चा थी कि गांधी विद्यालय के छात्र का जीप से एक्सीडेंट हो गया। जो सुनता, घटना-स्थल की ओर दौड़ पड़ता।
इसी अंतराल में पत्थर फेंकने वाले बच्चों का तो पता नहीं, किधर भाग गये। उन्हें किसी ने नहीं देखा और आम पब्लिक तो यह ही समझ रही थी कि पुलिस वाला जीप ड्राइवर गाड़ी का सन्तुलन खो बैठा जिसकी वजह से ऐक्सीडेन्ट हो गया। इसी कारण से भीड़ में पुलिस के प्रति क्रोध और आक्रोश व्याप्त था। सभी लोग पुलिस की आलोचना ही कर रहे थे।
पुलिस स्कूल के दो छात्र आलोक और अजय, जो कि आकाश के आगे-आगे चल रहे थे, को पकड़ कर थाने ले गई है। पुलिस का कहना था कि इन लड़कों ने ही जीप पर पत्थर फेंके थे जिस कारण दुर्घटना हुई।
जबकि पत्थर के विषय में इन्हें कुछ भी जानकारी नहीं थी। वे तो मैच के बारे में बातचीत करते हुऐ फुटपाथ पर चल कर अपने घर की ओर आ रहे थे।
उधर स्कूल में आरती मैडम को आकाश और विजय ने घटना के विषय में बताया तो वे पी.टी. सर और उन छात्रों को साथ ले कर घटना-स्थल पर पहुँची।
घटना स्थल पर पता चला कि पुलिस स्कूल के दो छात्र आलोक और अजय को पकड़ कर थाने ले गई है और उन पर आरोप था कि इन छात्रों ने पत्थर फेंक कर ड्राइवर को घायल कर दिया, जिस कारण दुर्घटना हुई।  यह खबर हवा की तरह पूरे शहर में फैल गई।
 तुरन्त ही प्रिंसीपल आरती मैडम, पी.टी.सर, विजय और आकाश थाने पहुँचे और उनके पीछे-पीछे था, अपार जन-समुदाय।
सभी लोगों में पुलिस के इस बेहूदे आचरण के प्रति आक्रोश ही नहीं प्रतिशोध भी था। वे पुलिस विरोधी नारे भी लगा रहे थे।
प्रिंसीपल आरती मैडम ने थानेदार को समझाया और आश्वासन दिया कि ये बच्चे इस तरह का काम कभी भी नहीं कर सकते।
कोई और कारण रहा होगा, इन बच्चों को घटना के विषय में कोई भी जानकारी नहीं है। ये दोनों छात्र हमारे स्कूल के अनुशासित और अच्छे छात्र हैं।
थाने पर बढ़ती भीड़ और परिस्थिति को अपने विपरीत होते देख थानेदार ने आलोक और अजय को छोड़ देना ही उचित समझा।
आलोक और अजय को थाने से छुड़ा कर प्रिंसीपल आरती मैडम, पी.टी. सर और सभी छात्र तुरन्त अस्पताल पहुँचे। और साथ ही इस घटना की पूरी सूचना उन्होंने स्कूल संचालक श्री रामदयाल जी को दी और उनसे तुरंत अस्पताल पहुँचने का आग्रह किया।
जीप के ड्राइवर के खिलाफ भिन्न-भिन्न धाराओं के  अंतर्गत केस दर्ज कर लिया गया था। ड्राइवर को पुलिस ने अपनी कस्टडी में ले लिया था। पंचनामा हो गया था। कानून है, कानून तो अपना काम करेगा ही।
राहुल की माँ और उसके परिवार के लोग अस्पताल पहुँच चुके थे। राहुल की माँ का तो रोते-रोते बुरा हाल था। आँसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। प्रिंसीपल आरती मैडम ने राहुल की माँ को धैर्य बँधाया।
रामदयाल जी ने अस्पताल के अधिकारियों के साथ मिल कर शीघ्र ही अच्छे से अच्छे इलाज की व्यवस्था के लिये कहा तो डॉ. अविनाश ने कहा कि देवम ने यहाँ आ कर पहले ही से सब कुछ बता दिया है आप बिल्कुल भी चिन्ता न करें, राहुल का उपचार सही दिशा में चल रहा है। रामदयाल जी देवम के किये गये कार्यों से बड़े प्रसन्न हुये।
उधर घटना-स्थल पर बे-काबू हुई भीड़ को जब पता चला कि पुलिस स्कूल के दो छात्रों को पकड़ कर ले गई है तो भीड़ ने पुलिस की जीप को जला डाला और पुलिस के दमन विरोधी नारे लगाते हुये थाने की ओर चल पड़े।
भीड़ के केवल हाथ होते हैं और वे भी केवल विध्वंस करने वाले हाथ। वो कहाँ क्या कर बैठे किसी को पता नहीं होता। जगह-जगह उत्पात आगज़नी करते-करते भीड़ थाने पहुँच कर पत्थर मारी करने लगी। ऐसे में कुछ अवांछनीय तत्व भी इस भीड़ में शामिल हो गये।
लोगों ने थाने में घुस कर तोड़-फोड़ भी की। पुलिस के दमन कारी कृत्य के विरोध में जगह-जगह पर आगजनी की घटना होने लगी।
सी.आर.पी. और एस.आर.पी. की टुकड़ियाँ  बुलानी पड़ी। इतना ही नहीं कई जगह तो कर्फ्यू और धारा 144 भी लगानी पड़ी। तब कहीं जा कर शहर की व्यवस्था को कन्ट्रोल किया जा सका।
स्कूल के छात्र बहुत दुखी थे उनके प्रिय साथी राहुल का इलाज अस्पताल में हो रहा था। कोई दिन ऐसा नहीं जाता था, जिस दिन स्कूल के दस बारह साथी राहुल से मिलने अस्पताल में न आते हों।
देवम तो रोज़ ही राहुल से मिलने जाता और किसी चीज की जरूरत होती तो उसे दे कर भी आता था। स्कूल के टीचर्स और प्रिन्सीपल भी समय निकाल कर जरूर आते।
लगभग चार पाँच दिन के बाद आठवीं कक्षा के दो छात्र रोहन और सोहन फूल का एक गुच्छा ले कर अस्पताल राहुल से मिलने पहुँचे। उनकी आँखों में आँसू थे और मन में ग्लानि के भाव।
उन्होंने रो-रो कर राहुल को बताया कि उन्हीं के कारण उस की यह दशा हुई है। असल में हम दोनों का पत्थर ही ड्राइवर के लग गया था जिस कारण जीप का एक्सीडेंट हो गया था।
राहुल भैया, आप हमें माफ कर दो, वैसे तो हम आपसे माफी के लायक भी नहीं हैं, हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई। भविष्य में हम कभी भी ऐसा खेल नहीं खेलेंगे जिसके कारण किसी को कोई कष्ट हो। हमारी वजह से ही आपको बहुत कष्टों का सामना करना पड़ा।
राहुल ने दोनों साथियों को गले लगा लिया और माफ कर दिया। रोहन और सोहन के सिर से जैसे एक बहुत बड़ा  बोझ उतर गया था। लेकिन वे आँसू, आत्मग्लानि और अफसोस के बोझ से दबे जा रहे थे।
अब उन्हें एहसास हो रहा था कि एक छोटी सी नादानी, नासमझी कितना बड़ा अहित कर सकती है, कितने लोगों को कष्ट पहुँचा सकती है।
यहीं तक नही, जब पुलिस वालों को सत्य का पता चला तो उन्होंने भी देवम और राहुल से अपनी गलती के प्रति दुख और अफसोस व्यक्त किया।
   काश !  समय रहते हम अपने बच्चों को कुछ अच्छे संस्कार और अच्छी बातें सिखा पाते ! अच्छे संस्कार देना आखिर, हमारा ही तो कर्तव्य है।
*****  
...आनन्द विश्वास