Friday 22 November 2013

*स्कूल पिकनिक*

*स्कूल पिकनिक*
( यह कहानी मेरी पुस्तक *देवम बाल-उपन्यास* 
से ली गई है।) 
...आनन्द विश्वास.

जिस दिन बच्चों को पढ़ना न पड़े और मौज-मस्ती, सैर-सपाटा करने का मौका मिले, उस दिन से अच्छा दिन और कौन-सा हो सकता है, बच्चों के लिए। पूरा का पूरा स्वतंत्रता-दिवस। किताबों से छुट्टी, दोस्तों के साथ मौज-मस्ती और धूमधड़ाका करने का मौका। बस, यही तो है बच्चों का स्वतंत्रता-दिवस।
यूँ तो मम्मी-पापा और परिवार के साथ तो अक्सर ही घूमना-फिरना होता रहता है बच्चों का। पर स्कूल के दोस्तों और टीचर के साथ में तो, कुछ और ही बात होती है। अनुशासन भी, मस्ती भी, मनोरंजन भी और इसके साथ-साथ धरती की सुन्दरता का अवलोकन भी।
शिक्षण की यह एक आवश्यक प्रक्रिया भी है क्योंकि इसमें मौज-मस्ती और मनोरंजन के साथ-साथ मानसिक विकास भी होता है और ढ़ेर सारी जानकारियाँ भी प्राप्त होती है विद्यार्थियों को। किताबों में पढ़ी हुई बातों को, देखने पर ज्यादा अच्छी तरह से समझ में आती हैं बच्चों को। ये तो एक शैक्षणिक-प्रवृत्ति है और इसीलिए स्कूलों में अक्सर ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
देवम के स्कूल में जब एक दिवसीय पिकनिक की सूचना सभी कक्षाओं में पहुँची तो खुशी की एक लहर-सी दौड़ गई सारे स्कूल में। एक अजब सा रोमांच छा गया था सभी बच्चों के चेहरे पर।
सभी विद्यार्थियों को सूचित किया गया कि रविवार को एक दिवसीय पिकनिक का आयोजन किया गया है। जो विद्यार्थी जाना चाहें वे अपना नाम अपने क्लास-टीचर को लिखा दें। सूचना मिलने के बाद रिसेस हो गई। अतः रिसेस में सभी विद्यार्थियों के बीच चर्चा का एक ही विषय था, पिकनिक, पिकनिक, और बस पिकनिक।
देवम और उसके मित्रों ने भी पिकनिक पर जाने का मन बना लिया था। कंचन, मीनू, गज़ल, गगन, सौरभ और पिंकी सभी तैयार थे पिकनिक के लिये और सभी ने अपना नाम क्लास-टीचर को लिखवा दिया। किस-किस को क्या-क्या सामान लाना है, खेलने के लिये और खाने के लिये, यह भी निश्चित कर लिया था।
दूसरे दिन पिकनिक जाने वाले विद्यार्थियों ने अपने-अपने क्लास-टीचर को नाम लिखा दिये। विद्यार्थियों की संख्या को देखते हुये दो बसों की व्यवस्था की गई। साथ ही चाय-नाश्ता और खाने की व्यवस्था स्कूल की ओर से की गई थी।
पिकनिक जाने से एक दिन पहले, जाने वाले सभी विद्यार्थियों को कॉन्फरेंस हॉल में बुला कर पिकनिक इन्चार्ज श्री गौरांग पटेल और प्रिंसीपल मैडम ने सभी विद्यार्थियों को आवश्यक जानकारी और सूचनाऐं दीं।
जो बच्चे दवा इत्यादि लेते हैं वे अपनी दवा साथ में ले कर आऐं। अकेले कहीं न जाऐं। कम से कम पाँच विद्यार्थियों के ग्रुप में ही रहें। जहाँ तक सम्भव हो अपने ग्रुप-इन्चार्ज के साथ ही रहें। कल सुबह छः बजे तक स्कूल में आ जाऐं। ग्रुप-इन्चार्ज टीचर साक्षी श्रीवास्तव, गौतम दवे, समीक्षा जैन और पिकनिक पर जाने वाले सभी टीचर भी वहाँ पर मौजूद थे।
दूसरे दिन सभी विद्यार्थी, टीचर्स, चपरासी और ग्रुप-इन्चार्ज टीचर्स स्कूल-प्रांगण में निश्चित समय पर आ गये। दोनों बसें वहाँ पर पहले से ही मौजूद थीं। ग्रुप-इन्चार्ज टीचर्स ने सभी विद्यार्थियों की हाजिरी ली और फिर बस में बैठने के निर्देश दिये। जब सभी विद्यार्थी, टीचर्स बस में बैठ गये तो पिकनिक इन्चार्ज गौरांग सर ने दोनों बसों के ग्रुप-इन्चार्ज टीचर्स से परामर्श कर, बसों को लेक-फ्रन्ट पिकनिक पोइन्ट के लिये रवाना कर दिया। बसों के रवाना होने के समय प्रिंसीपल मैडम भी वहाँ पर उपस्थित थीं।
लगभग एक घण्टे के सफर के बाद दोनों बसें लेक- गार्डन पर थीं। चाय-नाश्ता तैयार था। जिसकी व्यवस्था पहले से ही करा दी गई थी। सभी विद्यार्थियों ने ब्रेड-पकौड़े, और दाल-बड़े का नाश्ता किया। चाय-कॉफी, चिप्स और वेफर्स की व्यवस्था भी थी।
इसी समय पिकनिक इन्चार्ज गौरांग पटेल ने सभी विद्यार्थियों को सूचना दी कि बारह बजे खाने के लिये और तीन बजे नाश्ते के लिये, इसी स्थान पर आ जायें। शाम को पाँच बजे बस के पास पार्किंग में पहुँच जायें। समय का विशेष ध्यान रखें।
नाश्ता करने के बाद, पटेल सर की सूचनानुसार सभी विद्यार्थी कमला नेहरू ज़ियोलोजीकल गार्डनदेखने गये। वास्तव में तो यह प्राणी-संग्रहालय ही है जहाँ पर भिन्न-भिन्न प्रजातियों के पशु, पक्षी, और जानवरों को रखा गया है।
  बायोलौजी टीचर साक्षी मैडम ने विद्यार्थियों को उनके विषय में विशेष जानकारी दी। चिंपांजी, शेर, टाइगर, हिप्पोपोटेमस आदि देख कर सभी विद्यार्थी आनन्दित हुये। सर्प-संसार में साँपों की भिन्न-भिन्न प्रजातियाँ विद्यार्थियों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र थीं।
इसके बाद सभी छात्र चाचा नेहरू बाल-बाटिका में गये। बाटिका की शोभा तो देखते ही बनती थी। बाटिका में घुसते ही बाईं ओर डौल-घर बच्चों को बहुत भाया। तरह-तरह की गुड़िया और गुड्डे, भिन्न-भिन्न मुद्राओं में बच्चों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे।
इसके आगे था काँच-घर यानि दर्पण का संसार। अवतल, उत्तल और समतल दर्पणों का संगम। मानव आकार के दर्पणों को इस प्रकार समायोजित किया गया कि उसके सामने खड़े होने पर एकदम पतले पेंसिल की तरह दिखाई दें तो दूसरे दर्पण के सामने गेंद की तरह गोल-मटोल। हर दर्पण की अपनी अलग विशेषता और ऐसे अनेक दर्पण।
विद्यार्थियों को एक-दूसरे को चिढ़ाने का एक अच्छा मौका था। सब एक-दूसरे को कह ही रहे थे। देख, तू कितना पतला है तो दूसरा कहता देख तू कितनी मोटी है गोल-मटोल बैगन जैसी। पर सब के सब खुश थे। अपने आप की बेढ़ंगी शक्ल-सूरत को देख कर, हँसी आये बिना न रहे सके।
लोग कहते हैं कि दर्पण हमेशा सच बोलता है पर यहाँ तो उसके सच की पोल ही खुल गई। निरा झूँठा निकला। दम भरता था सत्यवादी हरिश्चन्द होने का। अच्छे-अच्छे सुन्दर बच्चों को पेंसिल जैसा पतला बताने में जरा भी संकोच न हुआ, झूँठे दर्पण को। कलि-युग का दर्पण जो ठहरा।
और अब बारह बजना ही चाहते थे और पेट में चूहे शोर मचा रहे थे। सो सबको याद आ गये गौरांग पटेल सर। सभी खाना खाने के लिये पहुँच गये। खाना तैयार था। सभी विद्यार्थियों, टीचर, चपरासी और स्टाफ ने खाना खाया। खाना स्वादिष्ट और अच्छा था सभी ने खाना बनाने वालों की प्रशंसा की और धन्यवाद भी दिया।
इसके बाद बोटिंग का प्रोग्राम था। लेक-पॉइंट पर पहुँच कर सभी विद्यार्थियों को लाइन बनाने की सूचना दे दी गई। ग्रुप-इन्चार्ज टीचर विद्यार्थियों के साथ में थे। तब तक गौरांग पटेल सभी विद्यार्थियों के लिये टिकिट ले कर आ गये। यहाँ दोनों तरह की बोटिंग की व्यवस्था थी। कुछ ने पैडल- बोट को पसन्द किया तो कुछ ने मोटर-बोट को।
बोटिंग के बाद, अब बारी थी रेल-यात्रा की। यानि बाल-रेल में बैठ कर पूरी लेक का चक्कर लगाने की। यह अनुभव अपने आप में अनौखा ही कहा जाय तो अच्छा होगा। पूरी लेक का विहंगावलोकन। रेल में बैठ कर, लेक में बोटिंग करते लोग, बतख़ और बगुलों के झुंड और झील में खिलते कमलों के अवलोकन का आनन्द। बड़ा ही अच्छा लगा सभी विद्यार्थियों को, बच्चों की रेल में।
तीन बज चुके थे और नाश्ता भी तैयार था। सभी ने नाश्ता कर, गार्डन में खेलने का प्रोग्राम बनाया। गार्डन में कोई क्रिकेट, तो कोई बैडमिंटन, तो कोई खो-खो। सभी  विद्यार्थी अपने-अपने ग्रुप के साथ, मस्त थे अपने-अपने खेलों में। कुछ ने गार्डन में ही आराम करने का मन बनाया तो कुछ ने मटर-गस्ती और घूमने का। क्योंकि इसके बाद तो बस, बस में बैठ कर बापस घर ही जाना था।
लगभग चार-साड़े चार बजे का समय रहा होगा। लेक के किनारे एक साइड में पक्षियों के दाना डालने का स्थान बना हुआ था। इस समय पक्षी तो वहाँ नहीं थे, पर वहाँ से झील का नज़ारा बड़ा ही सुन्दर दिखाई दे रहा था।
बोटिंग करते लोग, बतख़ और बगुलों के झुंड और झील में खिलते कमल, झील की सुन्दरता में चार चाँद लगा रहे थे। जगह-जगह पर पानी के ऊँचे-ऊँचे उठते फब्बारे मन में रोमांच भरने के लिए पर्याप्त थे। पायल और उसके साथी रमणीय स्थल का भरपूर आनन्द ले रहे थे।
सुन्दर दृश्य को निहार कर पायल पीछे मुड़ी तो उसकी नज़र पक्षियों के पानी पीने वाले वर्तन पर पड़ी। वर्तन में एक चींटा पानी से बाहर निकलने का प्रयास कर रहा था और वह ऊपर चढ़ कर बाहर आ भी गया था। तभी पायल को एक शरारत सूझी, उसने चींटे को फिर से पानी में डाल दिया। बेचारा चींटा फिर प्रयास कर बाहर आने में सफल हो गया। ऐसा प्रयास, दोनों ओर से कई बार हुआ। पायल को बड़ा मजा आया। चींटे का संघर्ष देख कर या उसे परेशान देख कर, पता नही, ये तो पायल ही जाने।
शायद कुछ लोगों की मानसिकता ही ऐसी होती है कि जब तक वे दूसरों को परेशान न कर लें, तब तक उन्हें मजा ही नहीं आता। दुखी आदमी आखिर किसी को सुखी कैसे देख सकता है ? हम अपने दुख से कम दुखी होते हैं पर दूसरे के सुख से ज्यादा दुखी होते हैं।
तभी पायल को एक पिल्ला दिखाई दे गया। बस, शैतान दिमाग, उसने पिल्ले को गोद में उठाया। पहले तो पायल ने उसे बड़े प्यार से सहेजा और देखते ही देखते उसे लेक की ओर फेंक दिया।
बेचारा पिल्ला पानी में गिर पड़ा। वह कभी डूबता, कभी तैरता और कभी जोर से चिल्लाता। पर पायल तो जोर-जोर से हँसती ही रही। हँसते-हँसते पायल अपना शारीरिक-सन्तुलन ही खो बैठी।
पायल की सहेलियों ने चिल्लाया भी, पायल पीछे मत चल, पीछे मत चल। देख, पीछे पानी है। तू पानी में गिर पड़ेगी। पर पायल का ध्यान तो पिल्ले को दुखी होते हुये, चिल्लाते हुये देखने में था। कुछ भी न सुना मदहोश पायल ने और उसका पैर फिसल गया, वह झील में गिर पड़ी।
उधर एक लड़के ने, जो शायद तैरना जानता था, तुरन्त लेक में कूद कर, डूबते पिल्ले को बाहर निकाल कर बाहर रख दिया और खुद भी बाहर निकल आया। कूँ-कूँ करता पिल्ला पहले फड़फड़ाया और फिर न जाने किधर चला गया।
इधर पायल पानी में डूबने लगी। सहेलियों ने जोर-जोर से बचाओ.. बचाओ... चिल्लाना शुरू किया।
तभी देवम का ध्यान पानी में डूबती पायल की ओर गया। उसने तुरन्त ही गज़ल और शीला का दुपट्टा लेकर उनको आपस में बाँध कर, एक छोर में रबड़ रिंग को बाँध कर, पायल की ओर फैंका। पायल उसे पकड़ नहीं पाई। देवम ने शीघ्रता से दुपट्टे को दुबारा पायल की ओर फैंका। इस बार डुबकी खाती पायल ने दुपट्टे को पकड़ लिया।
देवम ने दुपट्टे को घीरे-घीरे खींचना शुरू किया। अब पायल किनारे तक आ चुकी थी और वह डूबते-डूबते बच गई। देवम ने बड़ी साबधानी से पायल का हाथ पकड़ कर, गज़ल और शीला की सहायता से, पायल को पानी से बाहर खींच लिया।
ठंड और भय के मारे काँप रही थी पायल। दूसरों का तमाशा बनाने वाली पायल आज खुद एक तमाशा बन गई थी। उसका मन ग्लानि से भर गया था। अपने आप पर शर्मिन्दा थी वह। पता नही अब टीचर और गौरांग सर क्या कहेंगे उससे। और जब मम्मी-पापा को पता चलेगा तब ? प्रिंसीपल मैडम का ख्याल आते ही वह काँप गई।
भयभीत पायल के मन को पढ़ लिया था साक्षी टीचर ने। बड़े प्यार से सहेज कर वे उसे बस में ले आईं और भीगे कपड़ों को बदलवाने की व्यवस्था की।
जिसे भी घटना का पता चलता, वह दुखी होता। पायल के पागल-पन की बज़ह से अच्छी भली पिकनिक का सारा का सारा मजा ही किरकिरा हो गया था। एक ओर जहाँ पिकनिक में खुश-खुश थे सभी विद्यार्थी, पायल की घटना ने सभी को व्यथित कर दिया।
सभी विद्यार्थी पायल की बज़ह से दुखी और व्यथित हो गये थे, पर पायल अब हँस नही रही थी। चींटे और पिल्ले को दुखी होते देख कर हँस-हँसकर ठहाका लगाने वाली पायल, आज अपने साथियों को दुखी देख कर, हँस नही पा रही थी। उसकी आँखों से गंगा-जमना वह रही थी।
और शायद वह सोच रही थी कि यदि देवम वहाँ समय पर न पहुँचता तो शायद वह, न तो हँस पाती और ना ही रो पाती। पर सभी को रुला जरूर देती।
पाँच बज चुके थे। सभी विद्यार्थी बस में बैठ कर स्कूल की ओर रवाना हो चुके थे। हास-परिहास और दुख-सुख की अनुभूतियों के साथ। जीवन की एक अच्छी खट्टी-मिट्ठी यादगार पिकनिक के साथ।
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...आनन्द विश्वास

Saturday 17 August 2013

देवम की चतुराई

देवम की चतुराई
( यह कहानी मेरे बाल उपन्यास *देवम बाल-उपन्यास* से ली गई है।  ...आनन्द विश्वास )

बहुत दिनों से देवम और उसकी मम्मी की इच्छा सोमनाथ-दर्शन की हो रही थी। पर कभी तो देवम के पापा के ऑफिस का काम, तो कभी देवम की पढ़ाई। बस, प्रोग्राम बन ही नहीं पाता था।
पर इस बार तो सभी रास्ते साफ थे। कोई भी रुकाबट नहीं थी और ऊपर से श्रावण मास। उस ऊपर वाले की लीला ही निराली है। वैसे भी जब भोले बुलाते हैं तो कोई मुश्किल आती भी नहीं है और उनकी इच्छा के बिना तो पत्ता भी नहीं हिल पाता तो फिर आदमी की तो बिसात ही क्या है। सच में, जेहि विधि राखे राम, तेहि विधि रहिए।
आश्रम ऐक्सप्रेस ट्रेन का तत्काल में रिज़र्बेशन कराया गया और टिकट कन्फर्म भी हो गये।
सभी जरूरी सामान और कपड़े अटेची और बैग में जमा लिये गये। देवम के पापा भी आज ऑफिस से दो बजे तक घर आ गये। देवम के पापा-मम्मी और देवम तैयार होकर लगभग ढाई बजे दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गये।
रेलवे स्टेशन पहुँच कर देवम के पापा को ट्रेन और सीट का पता चलाने में कोई परेशानी नहीं हुई। एस-2 स्लीपर कोच में तीन बर्थ थीं, देवम परिवार की। सभी सामान सीट पर व्यवस्थित कर लिया। देवम खिड़की के पास में बैठ गया और वैसे भी बच्चों को तो खासकर खिड़की के पास बैठना ही अधिक अच्छा लगता है। गाड़ी चलने में तो अभी काफी देर थी पर पहले पहुँचना ठीक ही रहता है।
सामने वाली सीट पर दो सज्जन लगभग तीस-बत्तीस साल के होंगे, उन्हें पहुँचाने के लिये तीन चार लोग भी आये हुये थे। उनके पास सामान के नाम पर तो बस दो ब्रीफ-केस ही थे सो उन्होंने अपनी बर्थ पर ही रख लिये थे।
कुछ व्यक्तियों में चुम्बकीय-आकर्षण होता ही है। जिन्हें देख कर उनसे बात करने की इच्छा होती है और कोई व्यक्ति, जिसने आपका कुछ भी न बिगाड़ा हो, फिर भी उससे घृणा होती है और उससे दूर हट जाने की इच्छा होती है। मन की कैमिस्ट्री ही कुछ अलग होती है। ये तो मन ही जाने।
देवम का मिलनसार स्वभाव और आकर्षक व्यक्तित्व अपने आप ही सबको अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता रखता है। 
सामने वाले सज्जन ने देवम से पूछ ही लिया,  आप कहाँ जा रहे हैं ?
हम यहाँ से अहमदाबाद जायेंगे और फिर वहाँ से सोमनाथ, देव-दर्शन के लिये। देवम ने बताया।
और आप कहाँ जा रहे हैं, अंकल ? देवम ने पूछा।
हम भी यहाँ से अहमदाबाद जायेंगे और फिर वहाँ से मुम्बई जाना है। अंकल का उत्तर था।
क्या नाम है तुम्हारा ? बड़े प्यारे लगते हो।  उनमें से एक ने पूछा।
देवम, और आपका अंकल ? देवम ने उत्तर के साथ ही प्रश्न कर दिया।
मेरा नाम शिवपाल सिंह और इनका राजपाल सिंह  है और हम लोग मेरठ के रहने वाले हैं। उनमें से एक ने उत्तर दिया।
थोड़ी देर तक वार्तालाप का दौर चला। गाड़ी का सिगनल हुआ, गार्ड साहब ने झंडी दिखा कर सीटी बजाई और गाड़ी चल दी। देवम बाहर का मन मोहक दृश्य देखने लगा।
एक के बाद एक स्टेशन आते रहे और जाते रहे। गाड़ी की गति कभी धीमी कभी तेज। जिन्दगी की तरह, कभी धीमी और कभी तेज।
किसी स्टेशन पर दो मिनट तो कहीं दस मिनट रुकती और फिर चल देती। अपनी मंज़िल की ओर। सभी को अपनी-अपनी मंज़िल तक पहुँचाने के लिए। 
टी.सी. बाबू आये। सभी के टिकट चैक किये। सभी सही यात्री थे फालतू का कोई भी नहीं। थोड़े बहुत जो लोकल पैसिन्जर थे, वे भी उतर चुके थे।
दोसा स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो सामने वाले शिवपाल अंकल प्लेटफार्म पर उतरे, बिजली के खम्भे के नीचे खड़ा एक आदमी, जो शायद इनका ही इन्तज़ार कर रहा था, से कुछ बात की और फिर उसके पास से बैग लेकर, अपनी सीट पर आकर बैठ गये। बैग को सीट के नीचे रख दिया। देवम को कुछ अटपटा सा लगा, शंका भी हुई। आखिर कौन था जो अंकल को अपना बैग देकर चला गया ?
गाड़ी अपनी मंज़िल की ओर पल-पल बढ़ती जा रही थी। आखिर उसे भी तो सभी को अपनी-अपनी मंज़िल तक पहँचाना था। कभी कोई छोटा स्टेशन आता, चाय-गरम, चाय-गरम तो कभी ठंडा पानी की आवाज आती और फिर गाड़ी की रफ्तार बढ़ती तो आवाज बन्द हो जाती। गतिशील गाड़ी दौड़ने लगती अपनी अगली मंज़िल की ओर।
गाड़ी जयपुर रुकी। यहाँ पर लगभग दस मिनट का स्टोपेज था। देवम के पापा गाड़ी से नीचे उतरे प्लेटफार्म पर थोड़ा चहल कदमी करने और कुछ नाश्ता लेने के लिए भी। 
देवम के मन में विचार आया कि वह पापा से अंकल-चिप्स लाने के लिए सामने वाले शिवपाल अंकल के मोबाइल से बोल दे। ताकि इनका मोबाइल नम्बर पापा के मोबाइल में आ जायेगा।
उसने बड़ी चतुराई से सामने वाले शिवपाल अंकल से कहा, अंकल, जरा एक फोन करूँ ? पापा को।
हाँ हाँ, क्यों नहीं। उन्होंने देवम को मोबाइल देते हुए कहा। 
देवम ने पापा को फोन करके कहा, हाँ हलो पापा, मैं देवम बोल रहा हूँ। एक अंकल-चिप्स का पैकिट भी लेते आना।
अच्छा, और कुछ तो नहीं, अपनी मम्मी से भी पूछ लो।  पापा ने पूछा।
नही, और कुछ नही, पापा बस। देवम ने कहा।
सामने वाले अंकल को हँसी भी आई और देवम की दूरदर्शिता अच्छी भी लगी। शायद मोबाइल फोन की महत्ता का ज्ञान हुआ हो। देवम ने अंकल को धन्यवाद दिया और उनका मोबाइल उन्हें वापस कर दिया।
थोड़ी देर में देवम के पापा आ चुके थे। नाश्ता भी आ गया था और देवम के अंकल-चिप्स भी आ गये थे। सभी ने नाश्ता किया। कुछ घर का लाया हुआ और कुछ अभी लाया हुआ।
कुछ देर आराम करने के बाद, सोने की तैयारी होने लगी। देवम ने सबसे नीचे वाली बर्थ पर सोना पसन्द किया। पापा और मम्मी ऊपर वाली बर्थों पर सो गये। सामने वाले भी अपनी-अपनी बर्थ पर सो गये। 
रात का लगभग दो बजे का समय हुआ होगा। कोई छोटा स्टेशन रहा होगा, शायद फालना। गाड़ी दो मिनट के लिए रुकी और फिर चल दी।
देवम ने देखा कि सामने वाली बर्थ वाले दोनों अंकल अपनी बर्थ पर नहीं थे। दोनों बर्थ खाली थीं और ना ही उनका कोई सामान था।
देवम के मन में शंका हुई। अगर बाथरूम जाना था तो एक जाता, दोनों का न होना और वह भी सामान के साथ। जाना तो उन्हें अहमदाबाद से आगे मुम्बई तक था, पर बीच में ही क्यों उतर  गये।
शंका का होना लाज़मी था। उसने सीट के नीचे झुक कर देखा तो होश ही उड़ गये। नीचे एक बैग रखा था जिसमें से टिक-टिक की आवाज आ रही है। और यह तो वही बैग था जिसे दोसा स्टेशन पर उस आदमी ने शिवपाल अंकल को दिया था। समझते देर न लगी। शायद बम्ब था।
उसने तुरन्त ही पापा-मम्मी को जगाया। उन्होंने देख कर निश्चय कर लिया कि यह बम्ब ही है। तब तक पास के यात्री भी जग चुके थे।
इसकी सूचना देवम के पापा ने टी.सी.बाबू को दी। आनन-फानन में टी.सी.बाबू ने गार्ड और ड्रायवर को सूचित किया। अब तक तो कोच के सभी यात्री जाग चुके थे। साथ ही आगे-पीछे के कोच में भी यह खबर आग की तरह फैल गई थी।  रेलवे स्टाफ को सूचना मिलते ही सब हरकत में आ गये। उन्होंने यात्रियों को शान्ति और धैर्य बनाऐ रखने का निवेदन भी किया।
उधर यह सूचना तुरन्त पास के रेलवे स्टेशन अजमेर, आबू रोड, जयपुर और अहमदाबाद को भेजी गई। ताकि शीघ्र से शीघ्र, हर सम्भव सहायता उपलब्ध कराई जा सके।
रेलवे स्टाफ ने ऐसा निर्णय लिया कि इस एस-2 कोच को काट कर अलग कर दिया जाये। ताकि यदि समय रहते बम्ब डिफ्यूज़ न किया जा सका, तो भी कम से कम जान हाँनि से तो बचा ही जा सके और बड़ी होनारत को टाला जा सके।
रेलवे स्टाफ ने एस-2 स्लीपिंग कोच के सभी यात्रियों को शान्ति से जल्दी से जल्दी एस-2 कोच को खाली कर पास वाले कोच एस-1 और एस-3 में शिफ्ट होने को कहा। सभी यात्रियों ने शीघ्रता से कोच को खाली कर दिया। जब तक एस-2 कोच खाली हुआ, गाड़ी रुक चुकी थी।
रेलवे स्टाफ ने एस-2 और एस-3 कोच को अलग कर, इन्जन को आगे बढ़ा कर एस-2 कोच को एस-1 से अलग कर दिया। इस प्रकार केवल एस-2 कोच को काट कर अलग कर दिया गया था ताकि बम्ब-ब्लास्ट होने पर, कम से कम जान-हाँनि तो न ही हो।
बाकी ट्रेन को आगे ले जाकर रोक दिया गया। बस इन्तज़ार था तो बस, बम्ब निरोधक दस्ते का। जो बम्ब को डिफ्यूज़ कर कोच को सुरक्षित कर सके। पर समय रहते घटना-स्थल पर ना तो बम्ब निरोधक दस्ता ही पहुँचा और ना ही कोई सहायता।
बौगी तो रेल विभाग के कर्मचारी और यात्रियों के सहयोग से खाली की जा चुकी थी। और कुछ ही क्षणों के बाद बौगी में जबरदस्त विस्फोट हुआ। विस्फोट बड़ा भयंकर था। ऐसा लगा कि कान के पर्दे ही फट गये हों। दिल दहला देने वाला विस्फोट था। दूर-दूर तक बौगी के टुकड़े बिखर गये थे। आग की लपटें तो जैसे आकाश को ही छूना चाहतीं थीं।   
ट्रेन दो हिस्सों में बटी हुई खड़ी थी और बीच में धूँ-धूँ कर के जल रहा था एस-2 कोच। पूरे कोच के परखच्चे इधर-उधर बिखर गए थे। बिलकुल तहस-नहस हो गया था स्लीपिंग कोच एस-2।
उस ऊपर वाले का लाख-लाख शुक्रिया था जो कि सभी यात्री सुरक्षित थे किसी का बाल-बाँका भी न हुआ था। और कोई भी हताहत नहीं हुआ था। नुकसान हुआ था तो केवल कोच का।
लोग बस उस अनजान बालक को लाख-लाख दुआऐं दे रहे थे जिसकी बदौलत कि वे आज जिन्दा थे। कल्पना करते ही उनके रौंगटे खड़े हो जाते।
यदि ऐसा न हुआ होता तो क्या हुआ होता ? शायद खाक हो चुके होते वे और न जाने कहाँ-कहाँ बिखरे पड़े होते उनके मांस के लोथड़े। कितने परिवारों का क्या-क्या हुआ होता, ये सब तो कल्पना के परे था सोच पाना भी।
सुबह होते-होते तो रेल सुरक्षा बल, बम्ब निरोधक दस्ते और आई.बी. की टीम घटना स्थल पर पहुँच चुकीं थीं। पुलिस और आई.बी. की टीम ने आकर सभी परिस्थिति की जानकारी टी.सी. बाबू, गार्ड बाबू, रेलवे स्टाफ और ड्रायवर से प्राप्त की।
ए.टी.एस. और एन.आई.ए. की टीम ने जले हुए कोच का अध्ययन किया। शायद यह पता चलाने का प्रयास हो रहा हो कि बम्ब में कौन-सी सामिग्री का उपयोग किया गया है और इस ब्लास्ट के पीछे किस संगठन का हाथ हो सकता है। क्षति-ग्रस्त कोच अब एन.एस.जी. की निगरानी में था।
टी.सी. बाबू ने पुलिस, ए.टी.एस और आई.बी. के लोगों को देवम के पापा से मिलवाया। क्योंकि देवम के पापा और देवम ही एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे जो कि आतंकवादियों के विषय में कुछ बता सकते थे।
देवम के पापा ने अपने मोबाइल में से आतंकवादियों का मोबाइल नम्बर ऑफीसर को बताया। जिस मोबाइल से देवम ने जयपुर में प्लेटफार्म से अंकल-चिप्स लाने के लिये पापा को फोन किया था। साथ ही वे जानकारियाँ दी जो उन्हें यात्रा के दौरान उनसे बातचीत करते समय मिल पाईं थीं। जो लोग इन्हें दिल्ली रेलवे स्टेशन पर छोड़ने आये थे, उनके विषय में भी बताया।
यह मोबाइल नम्बर आई.बी के लिये बहुत महत्वपूर्ण था। आई.बी. के ऑफीसर ने हैड-ऑफिस को तुरन्त ही इस मोबाइल नम्बर को ट्रैस करने का निर्देश दिया।
साथ ही पुलिस और टास्क-फोर्स को भी निर्देश दिया कि वे उन आतंकवादियों का पीछा करें। देवम और देवम के पापा के सहयोग से आतंकवादियों स्कैच भी बनवाया गया जिसके आधार पर उन्हें पकड़ा जा सके।
देवम ने पुलिस अफसर को बताया कि मुझे इन दोनों लोगों पर शक तो दोसा स्टेशन पर ही हो गया था। जब एक आदमी बैग को लेकर प्लेटफार्म पर बिजली के खम्भे के नीचे खड़ा था और शिवराज सिंह ने नीचे उतर कर, उस आदमी से बात की और बैग लेकर ट्रेन में आ गया। उसके बाद ये दोनों आदमी बहुत चौकन्ने हो गये थे। और सोने की तैयारी करने के बजाय सीट खोल कर बैठ गये थे।
इनका मोबाइल नम्बर लेने के लिए ही मैंने जयपुर में पापा को फोन किया था और मैं नाटक करने में सफल हो गया। मैं सोया नही, जागता रहा और सोने का नाटक करता रहा। मैं चोर नज़र से इनकी गतिविधियों को देखता रहा। जैसे ही ये दोनों फालना स्टेशन पर उतरे और गाड़ी चली, मैने इन्हें प्लेटफार्म पर जाते हुए देखा तो तुरन्त ही मैं समझ गया कि ये गाड़ी से उतर कर जा चुके हैं। जरूर कुछ गड़बड़ है। मैंने पापा को जगा कर सब कुछ बताया।    
मीडिया का भारी जमाबड़ा था घटना-स्थल पर। कोई प्रेस वाला, तो कोई चेनल वाला। तरह-तरह के इन्टरव्यू लिए जा रहे थे। मीडिया ने देवम का इन्टरव्यू लिया। तरह-तरह के प्रश्न देवम से पूछे गये। देवम ने मीडिया के सभी प्रश्नों के सन्तोषजनक उत्तर दिये।
देवम के पापा और देवम को पुलिस की विशेष सुरक्षा प्रदान की गई। पुलिस और आई.बी. का मानना था कि उनकी जान को खतरा हो सकता है। साथ ही उनसे फिलहाल आगे की यात्रा न करने का अनुरोध भी किया। देवम के पापा ने उनके प्रस्ताव को उचित समझा और सोमनाथ न जाने का निर्णय लिया।
पुलिस ने अपनी सुरक्षा के अन्तर्गत देवम और देवम के पापा-मम्मी को दिल्ली पहुँचाने की व्यवस्था की। साथ ही देवम के घर और सोसायटी में भी पुलिस-फोर्स की कड़ी सुरक्षा प्रदान की गई।
देवम को जो पुण्य-फल सोमनाथ में भोले बाबा के दर्शन करके प्राप्त नहीं हो पाता, उस फल से लाख गुना अधिक पुण्य-फल भोले शंकर ने भोले यात्रियों की जान बचवा कर देवम को दे दिया। शायद भोले बाबा यही चाहते हों, और देवम को उन्होंने इस पुण्य-कार्य का माध्यम बनाया हो। उनकी लीला तो वे ही जाने।
उधर पुलिस, टास्क फोर्स के साथ, आतंकवादियों के मोबाइल फोन के लोकेशन को ट्रेस करते हुए आतंकवादियों के पास तक पहुँच चुकी थी। आतंकवादियों को चारों ओर से घेरा जा चुका था।
दौनों ओर से फाइरिंग चालू हो गई थी। फाइरिंग दो पुलिस-कर्मी शहीद हो गये थे और एक आतंकवादी मारा जा चुका था। दो घण्टों के कड़े संघर्ष के बाद दूसरे आतंकवादी को जिन्दा पकड़ने में पुलिस सफल हो गई।
आतंकवादियों को उम्मीद भी न थी कि पुलिस इतनी जल्दी उन तक पहुँच जायेगी। शायद उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ होगा या नही, पर यह सत्य था कि यदि देवम के द्वारा दिया गया मोबाइल नम्बर पुलिस के पास नहीं होता तो शायद पुलिस आतंकवादियों तक कभी भी नहीं पहुँच सकती थी।
आई.जी. पुलिस और रेलवे स्टाफ ने देवम के इस कार्य की खूब-खूब सराहना की। आई.जी. पुलिस ने तो मीडिया को दिये गये अपने इन्टरव्यू में इस बात का उल्लेख भी किया और देवम की भूरि-भूरि प्रशंसा भी की।
बाद में पता चला कि वे दोनों शिवपाल और राजपाल नहीं थे वल्कि खूँख्वार आतंकवादी अज़मल खान और मंसूर अली थे। इनके तार मुम्बई बम्ब-ब्लास्ट से भी जुड़े हुए थे, ऐसा पुलिस का मानना था। इन दोनों आतंकवादियों की तो इंटरपोल को भी तलाश थी।
इनकी सूचना देने वाले को सरकार ने दो-दो लाख रुपये के इनाम भी घोषित किये हुए थे। देवम की चतुराई और दूरदर्शिता ने, एक को जिन्दा और एक को मुर्दा सरकार तक पहुँचा दिया।
खूँख्वार आतंकवादी मंसूर अली मुठभेड़ में मारा गया और अज़मल खान अब पुलिस की गिरफ्त में है।
दूसरे दिन सभी समाचार-पत्रों में जलती हुई बौगी के दृश्य थे और हैड लाइन थी, धूँ-धूँ जलती ट्रेन, चतुर बालक देवम ने बचाई लाखों जान। तो किसी पेपर की हैड-लाइन थी, बहादुर देवम की चतुराई से एक खूँख्वार आतंकवादी मारा गया और दूसरा पकड़ा गया। 
टी.वी. और चेनल वालों ने देवम के इन्टरव्यू को विशेष कबरेज़ के साथ प्रसारित किया।
कुछ दिनों के बाद पुलिस विभाग द्वारा देवम के सम्मान में एक समारोह रखा गया। जिसमें देवम को चार लाख रुपये का एक चैक और प्रशस्ति-पत्र आई.जी. द्वारा प्रदान किया गया। साथ ही उन्होंने बताया कि देवम का नाम उन बहादुर बच्चों की लिस्ट में शामिल करने के लिए सरकार को भेज दिया गया है जिन्हें गणतंत्र-दिवस समारोह में सम्मानित किया जाना है।
देवम बहुत खुश था और शायद उससे कई गुना अधिक देवम के मम्मी-पापा और दादा जी।
देवम ने पापा की अनुमति लेकर पैसे सोसायटी वैलफेयर-फंड में जमा करा दिये। ताकि यह धन-राशि समाज के गरीब एवं दलित-वर्ग के लोगों के उत्थान में काम आ सके। और प्रशस्ति-पत्र ड्रोइंग-रूम में टंगवा दिया।


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Wednesday 10 April 2013

बगीचा

*बगीचा*
मेरे   घर   में    बना   बगीचा,
हरी घास  ज्यों बिछा गलीचा।
गेंदा,   चम्पा    और   चमेली,
लगे  मालती   कितनी प्यारी।
मनीप्लान्ट   आसोपालव   से,
सुन्दर   लगती   मेरी  क्यारी।
छुई-मुई  की  अदा  अलग  है,
छूते   ही   नखरे   दिखलाती।
रजनीगंधा  की  बेल  निराली,
जहाँ जगह मिलती चढ़ जाती।
तुलसी  का  गमला  है  न्यारा,
सब  रोगों   को  दूर  भगाता।
मम्मी हर  दिन  अर्ध्य चढ़ाती,
दो  पत्ते   तो   मैं  भी  खाता।
दिन में सूरज, रात को चन्दा,
हर  रोज़  मेरी बगिया आते।
सूरज  से   ऊर्जा  मिलती  है,
शीतलता   मामा   दे  जाते।
रोज़  सबेरे  हरी  घास पर,
मैं  नंगे  पाँव   टहलता  हूँ।
योगा  प्राणायाम और फिर,
हल्की   जोगिंग  करता  हूँ।
दादा जी आसन सिखलाते,
और ध्यान  भी  करवाते हैं।
प्राणायाम, योग  वो  करते,
और  मुझे  भी  बतलाते  हैं।
और शाम  को चिड़िया-बल्ला,
कभी-कभी   तो  कैरम  होती।
लूडो,  सांप-सीढ़ी   भी  होती,
या दादा जी से गप-सप होती।
फूल  कभी  मैं   नहीं  तोड़ता,
देख-भाल  मैं  खुद ही करता।
मेरा  बगीचा  मुझको  भाता,
इसको साफ  सदा  मैं रखता।
जग भी  तो है  एक  बगीचा,
हरा-भरा  इसको  करना  है।
पर्यावरण    सन्तुलित    कर,
धरती  को   हमें  बचाना  है।
                                     ...आनन्द विश्वास